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डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व

एक दिवसीय संगोष्ठी - २७ अप्रैल, २००८ .

(वेद संस्थान, नई दिल्ली - ११००२७)

 

वेद : तत्त्व और ग्रन्थ - डा. फतहसिंह - कृत ''भावी वेद भाष्य के संदर्भ सूत्र'' से उद्धृत

 - डा. श्रद्धा चौहान

सारांश

          ''वेद मोक्ष धर्म को बतलाने वाले ग्रन्थ ही नहीं, अपितु वे सांसारिक अर्थ - कामपरायण जीवन को भी स्वस्थ दिशा दे सकते हैं । हम लो परमार्थ को पूर्णतया भूले हुए हैं और व्यवहार को एकमात्र सत्य मान बैठे हैं । हमारी दृष्टि वेदों के पशु, प्रजा, द्रविण, रयि, सूर्य, वायु आदि में सांसारिक पदार्थों के अतिरिक्त कुछ देख ही नहीं सकती प्रतीकों को समझने की आद जाती रही यही कारण है कि वेद की भाषा को समझना अति कठिन हो गया '' वेद मनीषी डा. फतहसिंह जी के उपर्युक्त उद्गार स्मरण कराते हैं महर्षि अरविन्द के इस कथन का - ''वेद मुख्यतया आध्यात्मिक प्रकाश और आत्म - साधना के लिए अभिप्रेत हैं ।''

          वस्तुतः 'वेद' एक अतिमानसिक ज्ञान है उस ज्ञान को जिन ग्रन्थों का विषय बनाया गया, उनको भी इसीलिए 'वेद' कहा जाता है अतः वेदमन्त्रों के अर्थ को समझने के लिए आवश्यकता है इनकी प्रतीकवादी शैली को समझा जाए जिस ज्ञान के कारण चार प्रसिद्ध महाग्रन्थों का नाम 'वेद' पडा, वह सामान्य लौकिक ज्ञान से सर्वथा भिन्न है लोक की दृष्टि बहिर्मुखी है, वेद की अन्तर्मुखी लौकिक दृष्टि किसी वस्तु को खण्डशः जानने की अभ्यस्त है, जबकि वैदिक दृष्टि अखण्डतावादी है इस वैदिक दृष्टि को हम संहिता दृष्टि भी कह सकते हैं ।

 

 

 

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