CONTRIBUTION OF FATAH SINGH 

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Veda Study

 

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Wadhva on Fatah Singh

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Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

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Pavitra

Swah

Udaka

 

LET US STUDY VEDAS WITH FATAH SINGH

Vedas happen to be the oldest books in indian treasure. But understanding them sometimes seems to be beyond human capability. Attempts were made by the great Saayana to interpret them on the basis of rituals. This was an attempt unparallel in history. Then subsequent vedic thinkers like Kapali Shastri and Swami Dayanand did not like that vedic texts should be interpreted on the basis of rituals. They chose independent path of interpreting vedic mantras on the basis of sprituality. But truly speaking, not much ice could be cleared by these attempts. Dr. Fatah Singh too has followed a path for interpreting vedic mantras with free thinking, without going into intricacies of rituals. But, with a difference. He has taken full help from ancilliary vedic literature. Braahmanic texts are one of these. Thus, though he consciously did not follow the ritual path, but unconsciously he is following the same old tradition of interpreting vedic mantras on the basis of rituals.

    While interpreting, Dr. Fatah Singh follows some set guidelines. One of these is the concept that this human body consists of five levels - gross level, praanic/life level, mind level, supermind level and top golden level. He fits almost all his interpretations within this set. His second favourite set is the concept of trance - going towards trance and coming down from the trance. Regarding coming down from trance, it can be understood beautifully by his example of Jain concept of creatures with limited number of senses. Jain literature classifies creatures according to how many senses they have acquired from nature. For example, an ant is supposed to be one - sense creature. It has only the sense of smell. Other creatures may have two senses, etc. But Fatah Singh says that things are not so simple as these seem to be. One sense means just the moment after coming down from trance, when the life has just started. At that moment, full senses are not developed. Senses develop gradually after coming down from trance. 

     It is not so that keeping these sets in mind will solve all the difficulties inherent in interpretation. This will be clear while putting forth his interpretations. 

First published : 12-2-2008 AD( Maagha shukla shashthee, Vikramee samvat 2064)

फतहसिंह का वेद अध्ययन में योगदान

डा. फतहसिंह से मेरा परिचय

                                                         - विपिन मार

 

जब मेरी वेदों के बारे में जानने की रुचि हुई तो पता लगा कि डा. फतहसिंह की लिखी हुई एक पुस्तक 'वैदिक दर्शन' है जो प्रसिद्ध तो बहुत है लेकिन वर्तमान में अप्राप्य है इसके पश्चात् मैंने दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में उनकी एक पुस्तक 'सिन्ध टी लिपि में ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक' राजस्थान प्राच्य विद्या शोध संस्थान के ्टा पर देखी और जो व्यक्ति वहां पुस्तक विक्रय कर रहा था, उसने मुझे बताया कि डा. फतहसिंह तो दिल्ली में ही रह रहे हैं मैंने उस व्यक्ति से वेद संस्थान का पता ले लिया जहां डा. फतहसिंह उन दिनों वेद संस्थान के शोध निदेशक के रूप में निवास करते थे मैं उनसे मिला और उनकी पुस्तक वैदिक दर्शन के बारे में पूछा वह पुस्तक तो नहीं मिल पाई, लेकिन उनकी अन्य पुस्तके वेद संस्थान से प्राप्त हुई उन पुस्तकों में क्या है, यह देखकर मैं उनसे फिर मिला तो पता लगा कि वह वेद संस्थान में प्रतिदिन सवेरे वेद मन्त्रों पर व्याख्यान भी देते हैं मैंने उन व्याख्यानों को सुनना आरम्भ किया व्याख्यान के अन्त में वह प्रश्न पूछने की अनुमति देते थे कुछ दिन व्यतीत हो जाने के पश्चात् मैंने भी एक दिन प्रश्न पूछा उस दिन किसी मन्त्र के प्रसंग में सीता का नाम आया था मैंने उनसे पूछा कि शब्दकल्पद्रुम कोश में सीता की निरुक्ति 'सिनोति इति सीता' - जो बांधती है, वह सीता है, किस आधार पर की गई है डा. फतहसिंह ने कहा कि तुम तो काम के व्यक्ति हो, मेरे साथ आओ वह मुझे अपने साथ अपने कक्ष में ले गए और अन्ततः अन्य शोधकर्ताओं की भांति मुझे वैदिक निघण्टु के कूप नामानि अर्थात् कूप के पर्यायवाची शब्दों पर शोध करने का निर्देश दिया मैंने अन्य शोधकर्ताओं की भांति सबसे पहले कूप नामानि वेदों में कहां - कहां प्रकट हुए हैं, उन मन्त्रों का लेखन आरम्भ किया लेकिन मुझे यह कार्य बहुत नीरस लगा और मैंने यह कार्य छोड दिया इसकी अपेक्षा मैंने डा. फतहसिंह द्वारा 'वेद सविता' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेखों का अध्ययन आरम्भ किया और उन लेखों में जो तथ्य मुछे रुचिकर लगा, उसे मैंने लिख लिया अन्ततः यह एक अच्छा संग्रह बन गया जिसे बाद में एक पुस्तक 'पुराणों में वैदिक संदर्भ' ( परिमल पब्लिकेशन्स, दिल्ली) में प्रकाशित किया गया

          डा. फतहसिंह का प्रातःकाल का व्याख्यान प्रायः अथर्ववेद के किसी मन्त्र की आध्यात्मिक व्याख्या होता था मैंने उनके व्याख्यानों को हृदयंगम करना आरम्भ किया यह व्याख्याएं मुझे बहुत रुचिकर लगती थी । माधुरी गुप्ता(अब श्रीमती माधुरी साह ) जो मेरे वेद संस्थान में आने से पूर्व ही उनके व्याख्यान सुन रही थी, ने उनके व्याख्यानों के अपने पुराने नोट मुझे दे दिएऔर इस प्रकार डा. फतहसिंह की शैली से परिचित होने में मुझे बहुत कम समय लगा उन नोटों में जो सामग्री सामान्य व्यक्ति के लिए रुचिकर लगी, वह तो पुराणों में वैदिक संदर्भ पुस्तक में प्रकाशित कर दी गई है, लेकिन वेद व्याख्या का बहुत सा भाग ऐसा था जो बहुत महत्त्वपूर्ण होते हुए भी सामान्य जन के लिए उपयोगी नहीं समझा गया ऐसी सामग्री अभी तक उन नोटों में ही बन्द है

           डा. फतहसिंह की अथर्ववेद के मन्त्रों पर गहरी पकड थी । वेद संस्थान के निदेशक डा. अभयदेव जी कहा करते थे कि कोई व्यक्ति ऐसा हो जो डा. फतहसिंह का यह सारा ज्ञान हृदयंगम कर ले यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनके वेद अध्ययन के कारण मेरा वेद अध्ययन का कार्य ५० वर्ष आगे हो गया इसका अर्थ है कि यदि डा. फतहसिंह का वेदों पर कार्य उपलब्ध होता तो संभवतः अपने परिश्रम से इस चरण तक समझने में मुझे ५० वर्ष का समय तो लग ही जाता और कौन जानता है कि तब भी उपयुक्त मार्ग मिल पाता या नहीं

डा. फतहसिंह के वेद अध्ययन की शैली

जैसा कि प्रायः आर्य समाज में मान्यता रही है, यह समझा जाता है कि वेद एक संहिता हैं, उस संहिता में उनके अर्थों का रहस्योद्घाटन भी कहीं कहीं मिलना चाहिए अतः हमारा यह कर्तव्य है कि हम संहिता को बार - बार ढें लेकिन यह मान्यता अभी तक मान्यता ही रही है, इसका कोई प्रमाण सामने नहीं पाया है डा. फतहसिंह ने भी न्यूनाधिक रूप में इसी मान्यता के आधार पर कार्य किया है उनके अध्ययन की शैली यह रही है कि एक शब्द के वास्तविक आध्यात्मिक अर्थ को खोजने के लिए वह उस अकेले शब्द का अन्वेषण पूरे वैदिक साहित्य में करते थे - वेद मन्त्रों में वह शब्द कहां - कहां आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में कहां - कहां आया है , क्या उस शब्द के विभिन्न स्थानों पर प्राकट्य में उदात्त - अनुदात्त स्वरों का भेद है इत्यादि ब्राह्मण ग्रन्थों के आख्यानों के रहस्यों को पकडने में उन्हें कुछ सीमा तक सफलता मिल जाती थी । उसी के आधार पर वह वेद मन्त्रों की व्याख्या भी कर लेते थे लेकिन डा. फतहसिंह की यह शैली आर्य जगत में बहुत विवाद का विषय रही है मेरी उपस्थिति में लो कहा करते थे कि यह आवश्यक नहीं कि एक शब्द सारे वैदिक साहित्य में एक ही अर्थ में प्रकट हुआ हो उसके अर्थ विभिन्न स्थानों पर भिन्न - भिन्न हो सकते हैं डा. फतहसिंह ऐसे लोगों को विनम्रतापूर्वक उत्तर दे दिया करते थे, उनसे विवाद नहीं करते थे ऐसी आपत्ति करने वाले लोगों ने शायद ही अपने आप कोई कार्य किया हो ऐसी आपत्तियां आज भी मुझे सुनने को मिलती हैं और मेरे पास संक्षिप्त सा उत्तर होता है कि ऐसे विवाद डा. फतहसिंह के काल में भी उठते रहे हैं डा. फतहसिंह ने संभवतः पहली बार इस ओर ध्यान आकृष्ट किया कि यदि किसी शब्द में उदात्त - अनुदात्त चिह्नों का अन्तर है तो उसके अर्थों में भी भिन्नता जाती है उदात्त - अनुदात्त चिह्नों के अनुसार ही उस शब्द का प्रयोग चेतना के विभिन्न स्तरों पर होता है एक ही शब्द आसुरी स्तर के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है, दैवी स्तर के लिए भी लेकिन उसके स्वर चिह्नों में भिन्नता अवश्य होगी

          डा. फतहसिंह की वेद अध्ययन की शैली का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह था कि तन्त्र विज्ञान के आधार पर उन्होंने अपनी विचारधारा को चेतना के ५ या ७ स्तरों पर केन्द्रित कर रखा था कोई भी व्याख्या इस विचारधारा से बाहर शायद ही जाती हो चेतना के यह स्तर अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा हिरण्यय कोश हैं इसका रूपान्तर यह है कि हिरण्यय कोश आगे सत्, चित् और आनन्द में विभाजित किया जा सकता है तब यह कोश संख्या में हो जाते हैं

          डा. फतहसिंह की वेद अध्ययन की शैली का दूसरा पक्ष यह रहा है कि वह बहुत से मन्त्रों की व्याख्या 'समाधि की ओर आरोहण' और 'समाधि से अवरोहण' के रूप में कर लेते थे

          मेरा मानना है कि डा. फतहसिंह कट्टर आर्यसमाजी विचारधारा के थे लेकिन इसके अनपेक्ष, जब मैंने पुराणों की कथाओं का रहस्य उनसे जानना चाहा तो कथाएं सुनकर उनको हर्ष हुआ कि पौराणिक कथाओं में इतने हरे रहस्य छिपे हैं लेकिन अपनी ओर से उन्होंने इसका अधिक प्रयास नहीं किया कि वेद के रहस्यों की व्याख्या पुराणों की कथाओं के आधार पर की जाए इसके कुछ कारण हैं एक तो पुराणों की कथाओं और विषयों की कोई सूची उस समय तक उपलब्ध नहीं थी । दूसरे, एक व्यक्ति के प्रसार की एक सीमा होती है यह तो नहीं हो सकता कि मैं अकेले ही वैदिक साहित्य का भी अध्ययन कर लू, पुराणों की कथाओं को भी पढ लू, अन्य धर्मों के ग्रन्थों का भी अध्ययन कर लू । तीसरे, जब पुराण कथाओं को लेकर मैं उनके समक्ष उपस्थित हुआ, उस समय उनकी आयु लगभग ७५ वर्ष थी और वह चाहते थे कि वैदिक निघण्टु में शब्दों के जितने वर्गीकरण किए गए हैं, उन सभी पर कार्य करने का उनको अवसर मिले और अपने जीवन के अगले वर्षों में उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न भी किया उनके मार्गदर्शन में जो शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किए गए हैं, उनके द्वारा उनके इस चिन्तन की झलक मिलती है

          दुर्भाग्य से, आज तक ऐसा नहीं हो पाया है कि इस विषय के अध्ययन के लिए कोई समूह बन जाए किन्हीं कारणों से समूह बनना असंभव तो नहीं, कठिन अवश्य है अभी तो वेदाध्ययन का प्रयास एकल स्तर पर ही हो सकता है और एकल स्तर पर अध्ययन करने वाले फतहसिंह जैसे लो बहुत कम जन्म लेते हैं कालिदास ने कहा था कि इस पृथिवी पर दूसरा कालिदास पैदा होने में हजारों वर्ष का समय लग जाएगा

 

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