Proceedings of one day seminar on

Dr. FATAH SINGH - HIS LIFE AND WORKS

(27th April, 2008)

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Veda interpretation based on vedic glossary - Dr.(Mrs.) Pravesh Saksena

Vedic Symbolism based on vedic glossary - Dr. Abhaya Dev Sharma

Importance of Veda in daily life - Prof. (Mrs.) Yogini Himanshu Vyas

A survey of Vedic Etymology - Dr. Shashi Tiwari

A survey of Vedic monotheism and Omkar - Dr. Aruna Shukla

Vedic Darshan - A direction and thought - Dr. Pratibha Shukla

A survey of Dhai Akshar Ved Ke - Dr. Shashi Prabha Goyal

Vedic view of Arya - Shudra controversy - Dr. Surendra Kumar

Dayanand and his vedic interpretation - Shri Gopal Swami Sarasvati

A survey of Kamayani  -  Smt. Sushma Pal Malhotra

Summary of Proceedings - Dr. Shashi Prabha Goyal

 

 

 

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अपनी भूमिका में डा. फतहसिंह ने वैदिक व्युत्पत्तियों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिख है - ''संहिताओं में निर्दिष्ट व्युत्पत्तियां अधिक नहीं हैं, ये अपेक्षाकृत सीधी, सामान्य और प्रत्यक्ष व्याख्यान पर आधत हैं तथा कर्मकाण्डीय रंग से परे हैं । नदी और आपः जैसे शब्द प्राकृतिक पदार्थों के उपलक्षक हैं या फिर 'नचिकेतस्' जैसे शब्द हैं जो देवशास्त्र या दार्शनिक मीमांसा से निकले हुए दिखाए गए हैं । ये बीज रूप निर्वचन ब्राह्मण ग्रन्थों में आश्चर्यजनक ऊंचाईयों तक विकसित अवस्था में उपलब्ध होते हैं, जो प्रायः निश्चित प्रक्रिया और वैज्ञानिक उद्देश्य से सम्पन्न हैं । गोपथ ब्राह्मण में कईं शब्दों की व्याख्या धातु, उपसर्ग, निपात, प्रत्यय आदि के सहित की गई है ऋग्वैदिक ब्राह्मण सामान्यतः ऋषियों के नामों की व्युत्पत्तियों को देते हुए दिखाई देते हैं, तो वहीं तैत्तिरीय संहिता और यजुर्वेदीय ब्राह्मण (शतपथ को छोडकर) याज्ञिक प्रक्रिया परक शब्दों और यज्ञनामों के निर्वचन में विशेष रूप से रुचि लेते हुए पाये जाते हैं । शतपथ ब्राह्मण ऐसे शब्दों के अतिरिक्त कतिपय दूसरे शब्दों की व्युत्पत्तियां भी प्रस्तुत करता है सामवेद के ब्राह्मणों में छन्द - नामों और गान - नामों के निर्वचन विशेष रूप से दर्शनीय हैं ।  उत्तर ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तर्गत आरण्यक और उपनिषद् वाङ्मय में प्राप्त व्युत्पत्तियों में दार्शनिक शब्दावली की बहुलता है यहां तक कि छन्द और गान के वाची शब्द भी यहां प्रायः दार्शनिक शब्दावली के रूप में व्याख्यात हुए हैं । सामन्, ऋक् और गायत्र इसी कोटि में देखे जा सकते हैं । सूत्र साहित्य के निर्वचनों में कर्मकाण्डीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है सूत्रों की व्युत्पत्तियों द्वारा तो कईं बार ब्राह्मणों के निर्वचन समझने में सहायता मिलती है '' इस प्रकार डा. फतहसिंह ने वैदिक व्युत्पत्तियों के स्वरूपगत विकास का आकलन किया है

          उन्होंने अपनी भूमिका में एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि 'कईं बार ये वैदिक व्युत्पत्तियां बेतुकी सी लगती हैं, परन्तु जब हम उनका पूर्णतया विश्लेषण करते हैं, तब उनकी अर्थवत्ता प्रकट होती है कथा, दार्शनिक विचार और लोकप्रचलित विश्वास, इन तीन आधारों में से किसी के समावेश के कारण ही व्युत्पत्ति में बेतुकापन प्रतीत होता है जो उनको खोलकर समझते ही विलीन हो जाता है '

          डा. फतहसिंह ने स्पष्ट किया है कि किस कारण से एक शब्द की एक से अधिक व्युत्पत्तियां मन्त्रों या ब्राह्मणों में प्राप्त होती हैं । वे स्पष्ट करते हैं कि 'यह अनेक व्याख्याओं वाला एक शब्द नहीं है, अपितु एक समान रूप वाले विभिन्न द्गमों से निकले अनेक शब्द हैं ()'

 

(IV). अर्थवैज्ञानिक सिद्धान्तों में प्रकृत ग्रन्थ का योगदान

          डा. फतहसिंह ने वैदिक व्युत्पत्तियों की मीमांसा के फलस्वरूप कतिपय अर्थवैज्ञानिक सिद्धान्तों का संक्षेप में उल्लेख किया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं -

. स्थूल भौतिक परिदृश्य से सम्बद्ध शब्द उत्तरोत्तर सूक्ष्म भाववाची हो रहे हैं - यथा - अत्रि, ब्रह्मन् . यज्ञ से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों में त्रिविध - आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक परिवर्तन होते हैं ।

.प्रकृति देवों में से अधिकतर के नाम समय के साथ पूर्णतया सूक्ष्म हो जाते हैं ।

. इससे उल्टा क्रम भी प्राप्त है जहां भाववाची नाम पूर्णतया स्थूल पदार्थों के वाची हो रहे हैं - जैसे मनोता और श्रद्धा देवों के नाम

. आख्यान, अन्धविश्वास और धार्मिक विश्वासों का योगदान किसी शब्द के निर्माण में पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वे उसी मानवीय तर्क की उपज हैं जिसको भाषा की उत्पत्ति का उत्तरदायित्व दिया जाता है

. सम्बन्ध के नियम शब्द और उसके बदलते अर्थों में महती भूमिका निभाते हैं ।

. पदार्थों को दिए जा रहे नाम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस पदार्थ की किसी विशेषता के संकेत देते हैं ।

          इस प्रकार डा. फतहसिंह ने व्युत्पत्तिपरक अपने अध्ययन से उत्पन्न निष्कर्षात्मक सिद्धान्तों को भूमिका में लिपिबद्ध कर अर्थ शास्त्र के चिन्तक को विचारार्थ कुछ बिन्दु प्रदान किए हैं ।

 

(V) कतिपय शब्दों का व्युत्पत्तिपरक विशिष्ट अध्ययन

          ग्रन्थ के विवेचित शब्दों में ऋषि, देव, पदार्थ आदि लगभग सभी प्रकार के शब्दों पर प्राप्त व्युत्पत्तियों को उनके अध्ययन के साथ प्रस्तुत किया गया है जहां कुछ शब्दों को एक या दो व्युत्पत्तियों के उद्धरण के साथ छोड दिया गया है, वहीं कुछ शब्दों पर कईं पृष्ठों तक विचार किया गया है निस्सन्देह, अमृतम्, वाक्, इन्द्र: जैसे शब्दों पर विस्तृत विवेचन लेखक के मौलिक निष्कर्षों के साथ सम्पन्न हुआ है

.अमृतम् - +मृत मृत्यु विरोधी है पर यदि इसे +म्+ऋत करके देखा जाए तो अमृत में 'ऋत' सिद्धान्त का निहितार्थ है डा. फतहसिंह ने इस शब्द को समझने में ऋत और काल शब्दों का व्याख्यान किया है

. इन्द्र: - इन्ध~(जलना) से व्युत्पन्न 'चमकने वाला' अर्थ को देता 'इन्द्र' शब्द प्राण, सूर्य, शक्ति - सम्पन्न आदि अभिप्रायों से समवेत है वह 'ईम्' को करने वाला है, इसलिए विभु है 'इन्द्र' पद की दूसरी प्राचीन भाषाओं में प्राप्त शब्दों से समकक्षता दर्शाते हुए लेखक ने निष्कर्ष दिया है कि यह नाम विकास के कईं आयामों से गुजरा है

. वाक् - वच्(बोलना) से व्युत्पन्न 'वाक्' शब्द अपने समकक्ष, दूसरी भाषाओं में प्राप्त शब्दों से अच्छी तरह समझने योग्य है इसके दार्शनिक पक्ष भी हैं ; इस प्रकार शब्द के इतिहास पर लेखक ने मौलिक दृष्टि से विचार प्रस्तुत किया है

          शब्द के स्वरूप के साथ अर्थ के विकास की मीमांसा कुछ शब्दों में दर्शनीय है पृथ्वी, प्रजापति, पवित्र आदि शब्द एक के बाद एक कईं अर्थों को सूचीबद्ध करते हैं । निस्सन्देह वैदिक उद्धरणों को देखकर वैदिक ऋषि के अनेकार्थ प्रयोग की झलक मिलती है

 

(VI) वेदार्थ निर्धारण में प्रकृत ग्रन्थ की उपादेयता

          व्युत्पत्ति और अर्थ निर्धारण का परस्पर का सम्बन्ध है शब्दों का दो प्रकार का अर्थ होता है - एक व्युत्पत्ति निमित्त और दूसरा प्रवृत्ति निमित्त व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ आवश्यक नहीं कि व्यवहार पर आध प्रवृत्ति निमित्त अर्थ ही हो - हो भी सकता है और नहीं भी प्रचलन और व्यवहार के कारण बहुत बार शब्द अपने मूल से बहुत दूर हा जाता है निरुक्ति का प्रयास उसके मूल को खोजना है मूल तक पहुंचने के लिए अर्थ का सहारा लेना पडता है यास्क ने अपने निर्वचन सिद्धान्तों में यह बात स्पष्ट कर दी है - 'अर्थ नित्यं परीक्षेत' अर्थात् अर्थ को ध्यान में कर शब्द की परीक्षा करे

          प्रस्तुत ग्रन्थ तो वैदिक निर्वचनों को ही क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत करता है और केवल शब्द की रूप रचना और गठन पर प्रकाश डालता है, अपितु सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में हो रहे उसके प्रयोगपरक व्युत्पत्ति - वाक्यों को भी समीक्षापूर्वक देता है अतएव स्वाभाविक है कि वेद में उसके अर्थों की भी सम्यक् वेषणा साथ ही साथ मिले 'अत्रि' शब्द ऋषि नाम ही नहीं, प्राण और अग्नि के नाम भी हैं । इसी प्रकार अच्युतः, अद्रि आदि अनेक शब्दों की उत्पत्ति अनेक व्युत्पत्तियों से हुई है और वे भिन्न - भिन्न अर्थों को भिन्न - भिन्न संदर्भों में द्योतित करते हैं ।

          शब्दों के बहु - अर्थीय स्वरूप की जानकारी सम्यक् दृष्टिकोण से वेद मन्त्रों के अर्थों को समझने की शिक्षा देती है लेखक ने व्युत्पत्तिपरक अर्थ की पृष्ठभूमि के अन्वेषण में वैज्ञानिक, ध्वनि विज्ञानपरक, आख्यानसूचक, व्याकरणनिष्ठ, दार्शनिक आदि कई धरातलों को ध्यान में रखा है कह सकते हैं कि निरुक्तकार यास्क ने जहां व्युत्पत्तिशास्त्र के सैद्धान्तिक स्वरूप को वैदिक वाङ्मय के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया, वहीं यह ग्रन्थ वैदिक प्रामाण्य पर वेदार्थ के विचार का निर्देशक है

          वेदविद्वान् डा. फतहसिंह का वेदार्थ निर्धारण के सम्बन्ध में अपना एक विशेष एवं निश्चित दृष्टिकोण रहा है । वेद - अध्ययन को एक स्वतन्त्र दिशा देने वाला उनका मत पूर्व आचार्यों के गम्भीर अध्ययन से परिपक्व हुआ है तदनुसार 'वेद की भाषा प्रतीकात्मक है और वैदिक मन्त्रों के बहु आयामी अर्थ होते हैं जिनको सम्पूर्ण संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है ' कह सकते हैं कि प्रकृत ग्रन्थ के रूप में उनका प्रारम्भिक अध्ययन ही जीवन भर उनके वैदिक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त करता रहा अतएव उनकी अवधारणा का मुख्य निर्माता यह ग्रन्थ है

संदर्भ संकेत

. अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवा अफलामपुष्पाम् - . १०.७१.

. 'To Yaska's credit, it must be stated that his is the first systematic treatise on the etymology of an ancient language.' - Siddheshwar Varma, The Etymologies of Yaska' . V.V.R.I, Hoshiarpur, 1953, p. 3.

. V.K. Rajavade, Yaska's Nirukta. Text and Exegetical Notes'. Poona, 1940, p.42.

 

. वर्णामो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ, धातोस्र्तर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।। - निरुक्त, छज्जूरा शास्त्री, मेहरचन्द्र लक्ष्मणदा, १९८५, पृ. २१

. यदस्य सर्वस्याग्रमसृज्यत तस्मादग्निः - शतपथ ब्राह्मण ...११

तद्वा ऽएनमेदग्रे देवानामजनयत, तस्मादग्निः - शतपथ ब्राह्मण ...; Vedic Etm. P. 8

. One who leads the front(agre), i.e., a leader, from agram with Ni - 'to lead, to carry'

अग्ने नय सुपथ राये अस्मान् (ईशावास्योपनिषद १९); Vedic Etymology p.10.

 

. वर्चसा मा सम् अनक्त्वग्निः - अथर्व १८..११

. It is not the one word derived in many ways, but several words of different origin having one and the same form' - Vedic Etymology, p.6.

 

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