Proceedings of one day seminar on Dr. FATAH SINGH - HIS LIFE AND WORKS (27th April, 2008)
Veda interpretation based on vedic glossary - Dr.(Mrs.) Pravesh Saksena Vedic Symbolism based on vedic glossary - Dr. Abhaya Dev Sharma Importance of Veda in daily life - Prof. (Mrs.) Yogini Himanshu Vyas A survey of Vedic Etymology - Dr. Shashi Tiwari A survey of Vedic monotheism and Omkar - Dr. Aruna Shukla Vedic Darshan - A direction and thought - Dr. Pratibha Shukla A survey of Dhai Akshar Ved Ke - Dr. Shashi Prabha Goyal Vedic view of Arya - Shudra controversy - Dr. Surendra Kumar Dayanand and his vedic interpretation - Shri Gopal Swami Sarasvati A survey of Kamayani - Smt. Sushma Pal Malhotra Summary of Proceedings - Dr. Shashi Prabha Goyal
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यज्ञ एक वैदिक विधान है, एक सात्विक प्रक्रिया है । किन्तु यज्ञों में पशुहिंसा वेदसम्मत है या नहीं, यदा - कदा यत्र - तत्र उठने वाला यह एक अत्यधिक विवादास्पद प्रश्न है जो सहृदय चेतना को उद्वेलित करता रहता है । यदि ऐसा नहीं तो मनु द्वारा यज्ञ में पशुबलि को क्या संज्ञा दी जाए? समीक्षक का यह भी मानना है कि 'ऋग्वेद में सोम मधु दुग्ध और यव आदि के अतिरिक्त पशुबलि का उल्लेख नहीं मिलता ।'(पृ.७४) उन्होंने ब्राह्मण - ग्रन्थों में इसके उल्लेख की चर्चा की है ।(पृ. ६२) कामुकता, पशु हिंसा, सुरापान, अहंकार आदि देवोचित गुण नहीं । वेद, गीता, मनुस्मृति में यह स्पष्ट स्वीकार किया गया है । इसलिए 'प्रसाद जी ने इन कामुकता पशुहिंसा सुरापान अहंकार आदि अदेवोचित विशेषताओं से युक्त देवसभ्यता को 'देवदंभ' कहा है - 'देवदम्भ के महामेध में सब कुछ ही बन गया हविष्य' । मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि वह जो 'अमरता का दम्भ' है वही दूषित संस्कार उसमें भी उभरता है - 'आज अमरता का जीवित हूं/मैं वह भीषण जर्जर दम्भ/आह सर्ग के प्रथम अंक का/अधम पात्रमय सा विष्कम्भ/' गीता में इसी 'दंभ' की आसुरी सम्पत्ति में सर्वप्रथम गणना की गई है - दंभो दर्पोऽतिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। (१६-४) मानव पर दैवी एवं आसुरी शक्तियां अपना प्रभाव डालती रहती हैं । दैवी प्रभाव अधिक होने पर वह श्रद्धा संयुक्त होकर पाक यज्ञ का विधान कर विराट सृष्टि - यज्ञ का एक लघु संस्करण प्रस्तुत करता है तो आसुरी प्रभावावेष्टित होकर श्रद्धा की उपेक्षा कर किलात - आकुलि को पुरोहित बना कर यज्ञ की मूलभूत अवधारणा को ही विकृत कर देता है जो उसमें अहंकार दंभ ईर्ष्या आदि को उभारती रहती हैं । इसी को 'श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते '(१७-१३) कहा गया है । बलि के प्रश्न को लेकर सुरत्व - असुरत्व का द्वन्द्व श्रद्धा - मनु के विवादी संवाद में स्पष्ट दिखाई देता है । श्रद्धा - 'ये प्राणी जो बचे हुए हैं /इस अचला जगती के / उनके कुछ अधिकार नहीं क्या/वे सब ही हैं फीके / मनु , क्या यही तुम्हारी होगी/उज्ज्वल नव मानवता?/ जिसमें सब कुछ ले लेना हो/ हन्त बची क्या शवता/' मनु - 'तुच्छ नहीं है अपना सुख भी/श्रद्धे वह भी कुछ है /दो दिन के इस जीवन का तो /वही चरम सब कुछ है ।/' मनु की बढती हिंसक प्रकृति को देखकर श्रद्धा उसका तर्कपूर्ण एवं व्यावहारिक प्रतिरोध करती है - 'अपनी रक्षा करने में जो/चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र/ वह तो कुछ समझ सकी हूं मैं /हिंसक से रक्षा करे शस्त्र / पर जो निरीह जीकर भी कुछ/उपकारी होने में समर्थ/ वे क्यों न जियें उपयोगी बन/इसका मैं समझ सकी न अर्थ/ ' 'वे द्रोह न करने के स्थल हैं/जो पाले जा सकते सहेतु/' अतः स्पष्ट है कि मनु का प्रत्येक कर्म देवोचित नहीं, उसका पशुबलि देना भी उसी प्रकार से अदेवोचित कर्म है, वह वेदसम्मत भी नहीं । II जीवन को समग्रता में जीना कामायनी का सन्देश अत्यन्त विराट, व्यापक एवं उदात्त है । उसमें जीवन को टुकडों में नहीं, समग्रता में जीने की प्रेरणा है, ऐसा आदर्श जीवन जो विभिन्न गुणों का समुच्चय हो । जीवन को ऐसा व्यापक आयाम दो जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता, प्राणीमात्र सभी समा जाएं । 'शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं । हो निरुपाय, समन्वय उनका करे समस्त, विजयिनी मानवता हो जाए । ' यही भूमा का मधुमय दान है क्योंकि दुःख सुख दोनों ही विकास का सत्य हैं - 'जिसे तुम समझे हो अभिशाप/जगत की ज्वालाओं का मूल/ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जाओ भूल । ' वस्तुतः कामायनी समग्र जीवन का महाकाव्य है । जीवन स्वयं में अनेक आयामों को समेटे हुए है । प्रत्यक्षतः एक रूप है व्यष्टि, दूसरा रूप है समष्टि या लोक तत्त्व । क्षेत्र का वैविध्य व्यक्ति, परिवार एवं समाज तथा विषयपरक वैविध्य व्यवसाय, प्रशासन, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म, विज्ञान आदि में देखा जा सकता है । प्रसाद ने कामायनी में जीवन की इन लगभग सारी विविधताओं को बहुत मार्मिकता से छूने का प्रयास किया है । क्योंकि मानव - जीवन न तो मात्र व्यष्टि है न मात्र समष्टि । दोनों पक्ष अन्योन्याश्रित हैं । चाहे जीवन हो अथवा साधना - दोनों पक्षों में व्यक्तिपरक आयाम भी हैं समष्टिपरक भी । जिस व्यक्ति से जो परिवार बनता है उसके स्वास्थ्य का आधार है समर्पण, साहचर्य, सहकारिता एवं परस्पर प्रेम - सम्मान । कामायनी की प्रसिद्ध उक्ति है - 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो ' । नारी अस्मिता की प्रतीक यह उक्ति आज नारी - जगत् की धरोहर बन गई है । नारी की सार्थकता श्रद्धा - स्वरूपा होने में है । किन्तु यह प्रतिबन्ध मात्र नारी पर ही नहीं । अगली पंक्ति में जिस 'विश्वास रजत नग पग तल' की चर्चा है वह पुल्लिंग है । सद्ग्रहस्थ के निमित्त पुरुष को विश्वास के योग्य एवं पर्वत जैसा अडिग बनना होगा तभी श्रद्धा रूपी पीयूष - धारा बह सकती हैं और तभी गार्हस्थिक जीवन ऊबड खाबड नहीं, अनमेल नहीं, समतल, समरस एवं सामंजस्य पूर्ण बन सकता है । व्यष्टि जीवन(अर्थात् एकान्तिक) हो अथवा समष्टिपरक(गृहस्थ, प्रशासक या विराट मार्ग - दर्शक रूप) मनु - जीवन के सभी रूपों में श्रद्धा का साहचर्य अपरिहार्य है । मनु जब श्रद्धा की उपेक्षा करता है तो पारिवारिक दायित्वों से पलायन करता है । किन्तु जो मनु परिवार नहीं चला सकता वह राजनीतिक जीवन एवं प्रशासन तंत्र को कैसे सफलतापूर्वक संभाल सकता है । ऐसे प्रशासक के लिए यह अभिशप्त शाश्वत है - 'हो शाप भरा तब प्रजातंत्र' , फलतः 'प्रेम न रह जाय पुनीत' 'संकुचित असीम अमोघ शक्ति ' । इसका परिणाम घातक सिद्ध होता है - 'मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध दोनों में सद्भाव नहीं / वह चलने को जब कहे कहीं तब हृदय विकल चल जाय कहीं 'अथवा 'तुम समझ न सको बुराई से शुभ इच्छा की है बडी शक्ति । ' वेद में बार - बार प्रतिपादित 'शिवसंकल्पमस्तु' की जनकल्याण - कामना मानवता की सबसे बडी धरोहर है, अन्यथा 'सारा जीवन बन जाय युद्ध ' और 'जरा मरण में चिर अशांत' तथा अतिचारी बनकर 'वह चलता रहे सदैव श्रांत' । यही वह देवासुर संग्राम है जो मात्र पुराणों में ही नहीं, समाज में भी होता है, व्यक्ति में भी होता है और मन में भी । असुरत्व हावी होता अवश्य दिखाई देता है किन्तु उसके पराकाष्ठा पर पहुंच जाने पर अन्ततः विजय दिव्यता की ही होती है । कामायनी में व्यष्टि एवं समष्टि दोनों स्तरों पर इस संघर्षमयता का आधारफलक स्पष्ट दिखाई देता है - 'देवों की विजय दानवों की हारों का होता युद्ध रहा । संघर्ष सदा उर अन्तर में, जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ' ।। सारस्वत प्रदेश को प्रशासनिक कौशल की चरमसीमा तक पहुंचाने वाला मनु अन्ततोगत्वा श्रद्धा की शरण में जाने पर ही आनन्द लाभ करता है । सारस्वत प्रदेश भी अहंवादी जड विकास प्रदाता 'आत्मजा प्रजा' इडा - संवलित किन्तु श्रद्धाविहीन मनु से नहीं अपितु श्रद्धा - पुत्र मानव के इडा(बुद्धि ) संयुत रूप से सुख - समृद्धि की यात्रा पर अग्रसर होता है । प्रसाद की आशाविदिता धर्मानुप्राणित है । समष्टि - साधना में भी अन्ततोगत्वा दिव्यता विजयिनी होती है जिसकी सूचक है सारस्वत नगर वासियों की कैलास यात्रा । 'श्रद्धामय' मानव के साथ इडा का बुद्धिवाद धर्मविहित हो जाता है, अतः धर्म के प्रतिनिधि स्वरूप वृषभ पर सुखोपभोग की प्रतिमा सोमलता को लादकर मानव 'अखण्ड आनन्द' का अन्वेषण करने में सफल हो जाता है । धर्म की यथार्थ परिणति इसी अखण्ड आनन्द में होती है । यही उसकी चिरमुक्ति है, कृत्रिम मानवनिर्मित परिसीमाओं से मुक्ति है, यही धर्म की सार्थकता । है – 'इस वृषभ धर्म प्रतिनिधि को, उत्सर्ग करेंगे जाकर । चिर मुक्त रहे यह निर्भय, स्वच्छन्द सदा सुख पाकर ।।' IIIआनन्द तत्त्व कामायनी में मनु - श्रद्धा की युगल साधना का चरम सोपान है आनन्द की प्राप्ति जिसका प्रतीक गन्तव्य है आनन्दलोक और जिसकी भौगोलिक आधारभित्ति है - कैलास पर्वत , जहां पहुंचकर यह सिद्धिपरक अनुभूति होती है – 'समरस थे जड या चेतन, सुन्दर साकार बना था । चेतनता एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था ।।' साधना का चरम लक्ष्य है आनन्द। पिण्डाण्ड में अन्न, प्राण, मन, विज्ञान एवं आनन्द पंचकोशों में सर्वोपरि है आनन्दमय कोश । यही कामायनी का वह आनन्दलोक है जहां तक पहुंचना मनु का अभीष्ट है । श्रद्धा वहीं तक उसे पहुंचाने का सर्वाधिक सशक्त प्रेरक माध्यम बनती है । तदर्थ प्रसाद ने साधना का विराट् चित्र दर्शाया है । यह साधना भी द्विरूपा है - व्यष्टिपरक एवं समष्टिपरक । श्रद्धा का पर्वत(पिण्डाण्ड) की चोटियों(कोशों, चक्रों आदि ) पर चढना, मनोमय कोश की चोटी तक उसे इच्छा, ज्ञान, क्रिया का पृथक् - पृथक् क्षेत्र प्रतीत होना(ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की /एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की ) विज्ञानमय कोश में तीनों का एकाकार हो जाना और आनन्दमय कोश में स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की सम्पूर्ण भिन्नता का एकरूपता में परिणत हो जाना । यहां शक्ति - शक्तिमान, पुरुष - प्रकृति, श्रद्धा - मनु संयुक्त रूप में अवस्थित हो जाते हैं और अनाहत ध्वनि सुनाई देने लगती है - स्वप्न स्वाप जागरण भस्म हो, इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे । दिव्य अनाहत पर निनाद में, श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे ।। इसी आनन्दमय कोश की रूपकाश्रित आधारस्थली है - हिमगिरि का कैलास पर्वत , जहां अखण्ड शान्ति है, आनन्द है, द्वैत नहीं, कोई पराया नहीं, सभी अपने कुटुम्बी हैं, निर्विवाद रूप से सभी अपने हैं । 'आत्मविस्तार' की इसी मनोभूमिका तक ही तो श्रद्धा याज्ञिक मनु को ले जाना चाहती थी और अन्त में सफल भी हो जाती है । द्विरूपा साधना का दूसरा चरण 'समष्टि साधना ' तब उभरता है जब मनु स्वयं आनन्द की अनुभूति हो जाने पर शरणागत समस्त सारस्वतवासियों को उसका उद्बोधन देता है। उसी की प्रतीक स्थली है कैलास पर्वत - 'मनु ने कुछ कुछ मुसक्या कर कैलास ओर दिखलाया /बोले देखोv कि यहां पर कोई भी नहीं पराया ।' और 'सब भेदभाव भुलवाकर /सुख दुःख का दृश्य बताता/मानव, कह रे'यह मैं हूं ' / यह विश्व नीड बन जाता । ' वसुधैव कुटुम्बकम् की यह कितनी दिव्य परिकल्पना है । दार्शनिक दृष्टि से आनन्द उस विराट का वैशिष्ट्य है जो तत्त्वतः निराकार है । उसकी शक्तियां 'प्रकृति ' और 'उसके पुतलों' के द्वारा सक्रिय होती हैं । यह विविधस्वरूपा जगत् ही उसका मूर्तस्वरूप(साहित्यिक भाषा में) या मर्त्यस्वरूप(दार्शनिक भाषा में) कहा जा सकता है । इसीलिए प्रकृति के प्रकोप में भूतनाथ के नृत्यपदों से उत्पन्न विकम्पन का बोध अनुभव कर मनु सोचते हैं - 'तो फिर मैं हूं आज अकेला जीवन रण में/प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में ।' कामायनी में देव शब्द का प्रयोग एक तो मानव श्रेष्ठ देवजाति के लिए और दूसरा प्रकृति की विविध शक्तियों के लिए हुआ है । वह अदृश्य विराट नियामक जो इन दोनों को निमित्त बनाकर विराट कर्म का नियन्ता है, वह तो अमर है, निराकार है । देव और मानव तो दोनों ही परिवर्तन के पुतले हैं - 'देव न थे हम और न ये हैं, सब परिवर्तन के पुतले ।' कामायनीकार ने यह भी प्रतिष्ठा की है कि अहंकार की ज्वाला में व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है , वह स्वयं को प्रभु एवं नियन्ता मानने लगता है । अविवेक की इस पराकाष्ठा को सही रास्ते पर लाने के लिए भी वही रुद्रत्व गतिशील होता है जिसे प्रलयंकर की अगजगव्यापी महाशक्ति हुंकार के रूप में उभरकर उसी अहंकार (मनु को मूर्च्छित कर देती है । वस्तुतः वह परमतत्त्व तो विराट है वही दार्शनिक चिन्तना का आधार है । उसी के निमित्त यह कौतूहल मिश्रित जिज्ञासा एवं उत्सुकता उभरती है कि ' वह कौन है?' यह रहस्यमयता ही प्रसाद की छायावादी अवधारणाओं का एक सशक्त सम्बल है । 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' से सम्पन्न होने वाली वैदिक ऋचाओं की एक लम्बी शृङ्खला इसी कवि सत्य का अनुमोदन करती है । कामायनी में उस विराट की जिन अनन्त शक्तियों की चर्चा की गई है, उनमें से दो मुख्य हैं । एक, जगत् का कल्याण(जिसे प्रसाद ने शिवत्व में मूर्तिमन्त देखा); दूसरा, अतिचार या पाप को भस्मीभूत कर देने की संहारक क्षमता(जिसके दर्शन प्रसाद ने रुद्रत्व में किए ) । प्रसाद ने शिवत्व एवं रुद्रत्व के संगम का दर्शन महाशिवत्व में कर लिया था । इसीलिए मेरा यह मानना है कि प्रसाद पारिवारिक संस्कारों की दृष्टि से शैव रहे हों या शैवागम के प्रत्यभिज्ञादर्शन से सम्प्रेरित रहे हों, उनकी कामायनी शिवसंकल्पमस्तु की प्रार्थना, शिव एवं रुद्र का मंत्राभिषिक्त आह्वान, त्रयम्बकं यजामहे के महामृत्युंजय मंत्र से दूर कदापि नहीं । मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि वेद द्वारा 'मनुर्भव' 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के चरम सोपान तक उत्थान की प्रेरणा को कलियुग में मूर्तिमन्त करने में कामायनी को जितनी अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है, समतुल्य चेष्टा उसकी विविध गुत्थियों को सुलझाने में करते हुए 'कामायनी - सौन्दर्य' में वेद की ओर प्रत्यावर्तन(back to vedas) का एक ठोस व्यावहारिक प्रमाण प्रस्तुत किया गया है । डा. सुषमा पांल मल्होत्रा रीडर(रिटायर्ड) हिन्दी - विभाग, जानकी देवी कांलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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