Dr. FATAH SINGH on Indus Valley Script Decipherment Symbolism of Brahmanas and Upanishdas in Indus Valley Script Critical view of decipherment of Indus script
|
|
INDUS SCRIPT – FROM FATAH SINGH TO MADHUSUDAN MISHRA by Vipin Kumar e-mail :vedastudy@yahoo.com
The sign whether a script is written left to right or right to left is that at the end of the line, there is less space between words to complete the line. Thus sindhu script is mostly written right to left. But Dr. Fatah Singh in his efforts to decipher the script, has ignored this indication and declared that it is written from left to right. He used both alphabetic and pictographic methods to decipher the script. Pictographic means that one symbol is symbolic of one word or one person or object. He claimed to have read about 1100 Indus seals. After that, Dr. S.R. Rao published his famous work on decipherment of Indus script. He based his decipherment on borrowing sound values of Indus symbols from symbols of Egyptian culture. In 1977, Shri Mahadevan published his famous index and concordance of Indus symbols. During recent times, Dr. Madhusun Mishra has placed before us his decipherment and interpretation of Indus script. Contrary to all earlier decipherments, his method is not pictorial. Instead, it declares that Indus script is just like modern Devnagari script, except that it does not contain any grammer. Vowels are also placed on consonants, just like in Devnagari. According to him, Indus script can be best interpreted by taking into account the dialect of Indian villages. Dr. Fatah Singh considered that Indus script can only be interpreted on the basis of vedas. On the other hand, Dr. Madhusun Mishra thinks that it is useless to expect some deeper though in the language of those who were turning from hunters to farmers.
Question : Please clarify: “Fateh Singh's work had become meaningless after madhusudan's work.” I do not know if sindhu lipi is to be read from right to left or vece versa. Further can you please let me know in brief, 'what is relationship between Vedic and Sindhu cultures?' Shubh kaamanaayayn VMT Vishwa Tiwari onevishwa@gmail.com
Answer :Tiwari ji, Out of three questions, the third question is taken first. Orthodox people believe that Sindhu culture should be Hindu culture(with no proof). Secular people believe that it has nothing to do with Hindus. Dr. Fatah Singh thought that this is totally vedic culture. Not only this, rediscovering this culture will unravel those mysteries of vedas which have yet remained unsolved. I was at that time(1990 - 1994) was quite unhappy with him that he is wasting his time. Let he devote his time in study of vedas. He answered that Sindu study is also work of veda. Now I have come in contact with Dr. Madhusudan Mishra. He has put things more in order through his publications from linguistic point of view. He revealed that Sindhu script is of a period when grammar was not developed. Only symbols were there for expression. Subsequently, grammar was developed to connect two symbols. He puts vedic language at third stage of development. And proudly, he has proved that common village dialect of India still preserves the language of first period. Therefore, it is easier to understand Sindhu script by properly understanding the village dialect. The remnants of this first period still remain in the language of vedas which remain totally untouched till now. That is the use of Sindhu script. But, as stated in the abstract, Dr. Mishra believes that one can not expect that Sindhu script can have deep thought in it. It may only be a language of those who were turning from hunters to farmers. On the other hand, he has used Maheshwar Sutras to decode Indus language. It means that thinking is older than Indus script. Moreover, this script has been found throughout northern India( I do not know about southern part)..Even if those people may have remained hunters(which is proved by heaps of bones at Harappa sites), it is not necessary that all people were of the same quality. Indus seals also contain figures of Yogis with a kite above their head(probably symbolic of kundalini going out of body to travel in the vast expanse). This belies the idea that noble thinking may not have developed by then. And it is important to note the age of Indus culture : it is only 3000 B.C. from the latest archeological finds. But let Dr. Mishra proceed with his own mindset, a mind set from a linguist point of view. His findings may form the base for further researchers. Regarding the question of Sindhu script to be read from right to left or left to right, both ways were prevelent at that time, because both type of seals have been found. But right to left seals are much more in number. They had devised the symbols which could be written both ways with little change. Regarding the first question about relevance of deciphering by Dr. Fatah Singh, this decipherment is pictographic, that is to say, one symbol is considered as symbolic of some object. Dr. Fatah Singh has profusely chosen the first symbol as of Vritra. The human like symbol has been chosen for Indra. Other researchers in the field till now have done pictographic efforts only. It is only Madhusudan who has taken Indus script as a regular language, with almost no difference between Sanskrit and Indus, because both are based on Maheshwar Sutras. Now let time prove who is correct and who is wrong. Pictographic efforts are now not limited to India only. Others are also doing, talking into account puraanic mythology(see for example : http://www.indoeurohome.com ) Your questions are quite relevant and these will be used as such for paper writing purpose. Vipin Kumar
Decipherment of Indus
script by Dr. Madhusudan Mishra First published: 27-9-2008( Vikrama samvat 2065) सिन्धु लिपि : फतहसिंह से मधुसूदन मिश्र तक - विपिन कुमार डा. फतहसिंह का शोध ग्रन्थ 'सिन्धु घाटी की लिपि में ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक' १९६९ ई. में राजस्थान प्राच्यविद्या शोध संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित हुआ था । फरवरी २००८ में उनकी मृत्यु के पश्चात् मुझे इस पुस्तक के पुनः संपादन करने और इसे इण्टरनेट पर प्रकाशित करने का अवसर मिला । इस सम्पादन से मुझे संतुष्टि नहीं हुई और उसके तत्काल बाद इस सम्पादन को और आगे बढाने के संदर्भ में मेरी भेंट डा. मधुसूदन मिश्र से हो गई । सिन्धु लिपि पर उनके शोध कार्य को जानने का अवसर मिला । भारत में सिन्धु लिपि के निर्वचन के प्रयास कम से कम तीन व्यक्तियों द्वारा किए गए हैं । सर्वप्रथम, डा. फतहसिंह ने ईस्वी सन् १९६९ में अपनी पुस्तक 'सिन्धु घाटी की लिपि में ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक' प्रकाशित की । वेदों पर आधारित अपनी बृहत् कल्पना के आधार पर उन्होंने सिन्धु लिपि के पठन का प्रयास किया । उन्होंने लगभग ११०० लेखों का पठन किया जो अभी तक एकमात्र 'स्वाहा' पत्रिका में ही उपलब्ध हैं । यह उल्लेखनीय है कि सिन्धु लिपि निर्वचन के अधिकांश प्रयत्न यह मानकर होते हैं कि एक चिह्न किसी वस्तु विशेष का चित्र रूप है । इस चिह्न की कोई ध्वनि निर्धारित नहीं की जाती । इसके विपरीत, डा. फतहसिंह ने कुछ चिह्नों की तो ध्वनि उसी प्रकार निर्धारित की जिस प्रकार संस्कृत या हिन्दी वर्णमाला की, और कुछ चिह्नों को वस्तु विशेष के परिचायक माना । इस प्रकार उनका प्रयास एक मिला - जुला प्रयास था । इसके अतिरिक्त, सिन्धु मुद्राओं पर जो पशुओं के चित्र अंकित थे, उनका निर्वचन करने का भी उन्होंने प्रयास किया । पुरातत्त्वविदों का कहना है कि सिन्धु लिपि अधिकांश रूप में दांये से बांये लिखी गई है । इस कथन का आधार यह है कि लिखते समय जब पंक्ति को समाप्त करना होता है तो कम स्थान बचता है जिसमें बहुते से शब्द लिखने होते हैं । अतः शब्दों के बीच में स्थान कम छोडा जाता है । यह मुख्य पहचान है । डा. फतहसिंह ने सिन्धु लिपि का पठन पुरातत्त्वविदों के निर्णय के विपरीत बांयी ओर से दांयी ओर माना । सिन्धु लिपि की जो मुद्राएं दो, तीन या चार पार्श्व वाली थी और उन पर कोई अक्षर अंकित थे, उसको उन्होंने माना कि यह rosette stone है । पुरातत्त्वविद् मानते हैं कि किसी लिपि का ठीक - ठीक निर्वचन तभी संभव है जब कोई लेख एक से अधिक लिपियों में उपलब्ध हो । मिस्र में ऐसा एक लेख उपलब्ध हो गया जो तीन लिपियों में था और इस कारण वहां की लिपि का निर्वचन संभव हो गया । यद्यपि डा. फतहसिंह ने अपनी पुस्तक के प्रारम्भ में इन तथाकथित rosette stones पर अंकित लिपियों को उद्धृत तो कर दिया है, लेकिन पूरी पुस्तक में इनका उल्लेख कहीं नहीं है । इसका अर्थ है कि उनकी यह धारणा थी कि यह मुद्राएं rosette stones का कार्य कर सकती हैं । सिन्धु लिपि के कुछ चिह्नों की ध्वनियां निर्धारित करने के अतिरिक्त, डा. फतहसिंह ने कुछ चिह्नों को एक चित्र की भांति पढने का भी प्रयास किया । उदाहरण के लिए, एक आयताकार चिह्न को तीन भागों में बांटा गया है । इसका निर्वचन डा. फतहसिंह ने वेद के एकत, द्वित और त्रित के आधार पर किया है । सन् १९७३ ई. में डा. एस.आर. राव की पुस्तक Decipherment of Indus Script एशिया पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुई । डा. राव ने सिन्धु लिपि के निर्वचन के लिए मिस्री सभ्यता की लिपि के चिह्नों को आधार माना और सिन्धु लिपि के चिह्नों के लिए वही ध्वनि निर्धारित की जो मिस्र की लिपि के लिए की जा चुकी थी । डा. राव की यह मान्यता रही प्रतीत होती है कि मिस्र में उपलब्ध लिपि १३००० ई. पूर्व जितनी पुरानी है, जबकि मोएं - जो - दारो की सभ्यता केवल २००० - ३००० ई. पूर्व की है । अतः निश्चय ही यह मिस्र की लिपि से मिलती होगी । यहां यह उल्लेखनीय है कि मोएं - जो - दारो में खनन से जो कुछ उपलब्ध हुआ है, वह खनन केवल १० मीटर की गहराई तक किया गया है । उससे नीचे जल है जिसमें खुदाई नहीं की गई है । साथ के चित्र में मिस्र की सभ्यता का क्रमिक विकास दिखाया गया है । सन् १९७७ ई. में श्री ऐरावतम् महादेवन की पुस्तक The Indus Script : Texts, Concordance and Tables भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रकाशित की गई । इस पुस्तक के माध्यम से यह निश्चित रूप से जानने का अवसर प्राप्त हुआ कि सिन्धु घाटी की मुद्राओं में कौन सा चिह्न कहां - कहां प्रकट हुआ है । इसके पश्चात् प्रकाशित होने वाले डा. मधुसूदन मिश्र के कार्य के लिए यह पुस्तक मील का पत्थर सिद्ध हुई । जहां डा. फतहसिंह ने सिन्धु लिपि के निर्वचन के लिए अपने वेदों के ज्ञान का उपयोग किया था, डा. मधुसूदन मिश्र ने इस कार्य के लिए अपने भाषा विज्ञान के ज्ञान का उपयोग किया । डा. फतहसिंह के जीवन काल में ही, सन् १९९३ से आरम्भ करके, डा. मधुसूदन मिश्र ने भी सिन्धु लिपि के पठन के लिए अपना प्रयास आरम्भ किया और सन् १९९६ में अपना प्रथम शोध ग्रन्थ प्रकाशित किया । उसके पश्चात् इस विषय में उनके बहुत से शोध ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । डा. फतहसिंह स्वयं डा. मधुसूदन मिश्र के कार्य को नहीं जान पाए । सबसे पहले डा. मिश्र का ध्यान इस ओर गया कि सिन्धु लेखों में सबसे अधिक जिस चिह्न का प्रयोग हुआ है, उसकी ध्वनि क्या हो सकती है ? यह चिह्न आरम्भ में बहुत कम प्रकट हुआ है, अन्त में बहुत अधिक । यदि सिन्धु लेखों के संदर्भ में संस्कृत भाषा की ओर ध्यान दिया जाए तो संस्कृत में शब्दों के आरम्भ में ष और ण वर्णों का प्रयोग बहुत कम हुआ है, मध्य और अन्त में वह बहुलता में हैं । इस आधार पर डा. मिश्र ने अनुमान लगाया कि यह चिह्न या तो ष ध्वनि वाला हो सकता है अथवा ण ध्वनि वाला । उसके पश्चात् डा. मिश्र ने यह सिद्ध किया कि इस चिह्न की ध्वनि ष है । डा. मधुसूदन मिश्र ने माहेश्वर सूत्रों के आधार पर सिन्धु घाटी की अंकात्मक लिपि का जो निर्वचन प्रस्तुत किया है और उसका देवनागरी के अक्षरों से तादात्म्य स्थापित किया है, वह बहुत सुदृढ आधार है । जब एक बार डा. मिश्र ने सिन्धु लिपि के अंकात्मक चिह्नों की ध्वनि का निर्धारण कर लिया तो उसके पश्चात् अन्य सिन्धु लेखों में जहां अंकात्मक चिह्न के बदले कोई अन्य चिह्न प्रकट हो रहा था, उसको उन्होंने यह मान लिया कि यह अंकात्मक चिह्न के समान ही है । प्रश्न यह उठता है कि यदि सिन्धु घाटी की लिपि के अंकात्मक चिह्न ध्वनि विशेष को इंगित करते हैं तो सिन्धु लिपि में अंकों का क्या स्थान है ? इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता । तुलना के लिए, साथ के चित्र में मिस्री सभ्यता में उपलब्ध अंकों की स्थिति दिखाई गई है । डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार सिन्धु घाटी की लिपि में तीन प्रकार के चिह्न हैं - अंकात्मक, रेखात्मक और चित्रात्मक । सबसे पहले चित्र लिपि का विकास हुआ होगा । उदाहरण के लिए, मकडी को इंगित करने के लिए मकडी का चित्र बना दिया, कछुए को इंगित करने के लिए कछुए का, मछली को इंगित करने के लिए मछली का, चिडिया को इंगित करने के लिए चिडिया का । फिर भाषा का आगे विकास होने पर लोगों को पूरा चित्र बनाने में कठिनाई का अनुभव हुआ होगा । तब उन्होंने एक चित्र को संक्षेप में बनाना आरम्भ कर दिया होगा । इससे रेखात्मक या geometrical चिह्नों का विकास हुआ होगा । इसी क्रम को आगे बढाते हुए डा. मधुसूदन मिश्र ने सिन्धु लिपि में जो पक्षियों, सर्पों, पशुओं पर आधारित चिह्न हैं, उनका तादात्म्य भी देवनागरी के अक्षरों से करने का बडा प्रयास किया है । यह तादात्म्य कितना सत्य है, कितना असत्य, इसका निर्णय भविष्य में ही हो सकेगा । अपने निर्वचन के आधार पर डा. मधुसूदन मिश्र ने सिन्धु लिपि की मुद्राओं पर अंकित पूरी की पूरी पंक्तियों का अर्थ लगाया है और वह इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि सिन्धु लिपि भाषा के विकास में वह स्थिति है जहां व्याकरण का विकास नहीं हुआ था और एक अक्षर या चिह्न पूरे शब्द का सूचक था । उन्होंने यह माना है कि सिन्धु लिपि मुद्राओं पर जो भी अंकित है, उसका निर्वचन एक साधारण समाज के आदशो‰ के आधार पर, उस समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं के आधार पर, एक ऐसे समाज के आधार पर किया जाना चाहिए जो शिकार से खेती की ओर अग्रसर हो रहा था । । उस लिपि में कोई गंभीर आध्यात्मिक तथ्य छिपा होगा, ऐसी आशा हमें नहीं करनी चाहिए । हस्ती के चित्र वाली मुद्राओं का अन्वेषण करने पर यह तथ्य सामने आ रहा है कि इन मुद्राओं का सम्यक् निर्वचन तब तक संभव ही नहीं है जब तक हम गंभीर विचारों का आश्रय न लें । और इन गंभीर विचारों का मूल केवल वैदिक साहित्य में ही मिल सकता है । कुल मिलाकर, डा. मधुसूदन मिश्र का शोध कार्य बहुत महत्त्व रखता है क्योंकि वह अपना निर्वचन चाहे किसी भी व्यक्तिगत दृष्टिकोण से कर रहे हों, उनका निर्वचन भविष्य के निर्वचनकर्ताओं के लिए एक आधार बनेगा । और हमारे समाज में दोनों प्रकार के लोग हैं - एक वे हैं जो सभी जगह तथाकथित धर्मनिरपेक्षता देखना चाहते हैं - वामपंथी विचारधारा । दूसरी ओर धर्मभावुक व्यक्ति हैं । धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों के लिए डा. मधुसूदन मिश्र के निर्वचन बहुत मूल्यवान हैं । डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार सिन्धु लेखों की भाषा पृथक्पद श्रेणी(isolating stage) की है जिसके अक्षर ही शब्द हैं और व्याकरण तो है ही नहीं । यदि किसी लेख में एक से अधिक अक्षर हैं तो ऐसा अनुमान होता है कि एक अक्षर वाला वाक्य आज्ञावाचक है, दो अक्षर वाले वाक्य में एक कर्ता है, दूसरा क्रिया । तीन अक्षर वाले वाक्य या तो कर्ता + कर्म + क्रिया हैं या अन्यकारक + कर्ता + क्रिया । बडे लेखों में कईं वाक्य घुसे हुए हैं । डा. मिश्र किसी अक्षर का पूर्वानुमान लगाने में एकाक्षर कोशों का सहारा लेते हैं । यह पूछे जाने पर कि वह मुख्य रूप से किस एकाक्षर कोश का अनुसरण करते हैं, उनका कहना है कि वह मोनियर - विलियम्स के शब्दकोश का आश्रय लेते हैं जिसमें बहुत से शब्दों के आगे कोष्ठक में L लिख दिया गया है, अर्थात् वह lexicographic हैं, एकाक्षर कोशों से संगृहीत हैं । और कहीं - कहीं अर्थ लगाने के लिए तो वह अर्थ अपने आप गढ लेते हैं, यह मानते हुए कि वह सिन्धु सभ्यता के समाज से एकाकार हो गए हैं । चाहे डा. मधुसूदन मिश्र किसी भी रास्ते पर चलें, प्रश्न यह उठता है कि सिन्धु लेखों के उनके निर्वचनों को परखने की कसौटी क्या है । डा. मिश्र स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि सिन्धु लेखों के निर्वचन में उन्होंने लेखों के साथ जो पशुओं आदि के चित्र हैं, उनकी उपेक्षा की है । अतः डा. मिश्र के निर्वचनों की सत्यता को परखने की पहली कसौटी तो यही होगी कि उनके निर्वचन सिन्धु मुद्राओं पर उपलब्ध पशुओं आदि के चित्रों के किन्हीं रहस्यों को उद्घाटित करते हों । डा. मिश्र का इस संदर्भ में कहना है कि सिन्धु लेख और उनके साथ चित्र एक कृषि - प्रधान समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं । उदाहरण के लिए, यदि किसी सिन्धु मुद्रा पर बाघ का चित्र है तो डा. मिश्र के अनुसार यह नदी की भयावहता को दर्शाता है । यदि नदी से नहरें निकाल ली जाएं, उस पर बांध बना दिए जाएं तो नदी की भयावहता समाप्त हो जाती है और वह सौम्य हो जाती है । कुछ सिन्धु मुद्राओं पर बाघ को पालतू रूप में दिखाया गया है जिसके मुख के आगे एक नादी सी रखी है । सिन्धु मुद्राओं के निर्वचन की दूसरी कसौटी यह है कि सिन्धु लिपि के अक्षरों की जो ध्वनियां उन्होंने निर्धारित की हैं, उनका अनुसरण करके वेदों के आधार पर अक्षरों और शब्दों का अर्थ खोजने का प्रयत्न किया जाए जो सिन्धु मुद्राओं पर अंकित पशुओं के चित्रों के भाव से भी मेल खाता हो । यह कार्य चल रहा है । डा. मधुसूदन मिश्र की धारणा के विपरीत, दूसरी संभावना यह है कि सिन्धु लिपि के काल तक मनुष्य का मानसिक विकास पर्याप्त मात्रा में हो चुका था और गंभीर विचारों को व्यक्त करने के लिए ही सिन्धु लिपि की मुद्राओं की रचना की गई होगी । डा. मधुसूदन मिश्र भी यह मानते हैं कि सिन्धु सभ्यता के लोगों ने जिस भाव को अपनी भाषा में व्यक्त करने में असमर्थ पाया, उसको व्यक्त करने के लिए भाषा के साथ चित्र भी बना दिया । श्री कल्याणरमण का मानना है कि सिन्धु लेखों का काल महाभारत का काल है और सिन्धु लेख उस समय के खनिकों की भाषा है । महाभारत में उल्लेख आता है कि विदुर ने युधिष्ठिर की सहायता करने के लिए एक खनिक भेजा जिसने युधिष्ठिर से उस म्लेच्छ भाषा में वार्तालाप किया जिसे युधिष्ठिर के अतिरिक्त और कोई नहीं समझ पाया । इस कथन को इस पहेली का एक संभावित हल मान सकते हैं कि सारे प्रमाण यह बता रहे हैं कि सिन्धु लेख केवल ५००० वर्ष पुराने हैं, जबकि वेदों का काल इससे प्राचीन है । डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार सिन्धु लेखों की भाषा संस्कृत की जननी की भी जननी है । अतः सिन्धु भाषा का काल बहुत प्राचीन होना चाहिए । लेकिन यह मानने पर कि एक ही समय में दोनों प्रकार की भाषाओं का अस्तित्व था, गुत्थी कुछ सुलझ जाती है । लेकिन फिर भी यह प्रश्न तो बचता ही है कि यदि सिन्धु भाषा के लेख उपलब्ध हो सकते हैं तो उस काल की किसी अन्य भाषा के क्यों नहीं ? ऋग्वेद की ऋचाओं में उ, घ आदि कुछ एकाक्षर मिलते हैं । इनमें से उ के संदर्भ में तो सायणाचार्य ने यह कह कर पल्ला झाड लिया है कि यह अक्षर पादपूरक हैं, अर्थात् ऋचा के एक पाद में छन्द के अक्षरों की संख्या की पूर्ति के लिए ऐसे अक्षर ऋषियों द्वारा जोड दिए गए हैं जो निरर्थक हैं । लेकिन डा. फतहसिंह इस धारणा का कडा प्रतिवाद करते थे और उनकी धारणा थी कि यह अक्षर निरर्थक ही नहीं जोड दिए गए हैं । स्वयं उ अक्षर का पदपाठ ॐ इति किया गया है जो संकेत करता है कि यहां कोई गंभीर अर्थ निहित है । घ अक्षर के संदर्भ में घ को निश्चितता के अर्थ में, संहति के अर्थ में मान लिया जाता है, अर्थात् जहां किसी तथ्य पर जोर डालना हो, वहां घ अक्षर जोड दिया जाता है, ऐसी धारणा संभवतः सायणाचार्य के काल से चली आ रही है । डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार सिन्धु लिपि में ग और घ अक्षर क्रियापद के रूप में मिलते हैं जिनमें से ग तो वर्तमान काल का और घ भविष्यकाल का सूचक हो सकता है । वर्तमान स्थिति में, यह कहा जा सकता है कि डा. फतहसिंह ने सिन्धु लिपि का जो निर्वचन किया है, वह डा. मधुसूदन मिश्र के क्रमबद्ध तरीके से निर्वचन के सामने बेमानी हो चुका है । लेकिन डा. फतहसिंह ने कुछ ऐसे तथ्यों की ओर संकेत किया है जो अभी तक अकाट्य बने हुए हैं । उनमें से एक यह है कि सिन्धु लिपि में एक ही ध्वनि के लिए तीन प्रकार के चिह्नों का प्रयोग किया गया है - आंकिक चिह्न, रैखिक और पशुचित्र । डा. फतहसिंह का कहना है कि यह नहीं समझना चाहिए कि इन तीनों लिपियों में वैचारिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है । सिन्धु काल के मनीषियों ने वैचारिक मतभेदों को दर्शाने के लिए ही तीन भिन्न प्रकार की लिपियों का एक साथ प्रयोग किया है । दूसरा अकाट्य तथ्य यह है कि डा. फतहसिंह ने एक चिह्न को वृत्र का प्रतीक माना है । डा. मधुसूदन मिश्र ने इस चिह्न को वर्तमान ष अक्षर की ध्वनि प्रदान की है । श, ष, स अक्षर ऊष्माण कहलाते हैं, अर्थात् भाषा विज्ञान में जहां कहीं भी ऊष्मा का जनन दिखाना हो, वहां इन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है । दूसरी ओर य, र, ल, व हैं जहां ऊष्मा का शोषण होता है । इन्हें अन्तस्थ कहते हैं । जहां ऊष्मा का जनन होता है, वहां वह ऊष्मा बेकार जा रही होती है । इसे ही वृत्र की स्थिति कहा जा सकता है । बेकार ऊष्मा या ऊर्जा वृत्र बन रही है । एक चिह्न )) की डा. फतहसिंह ने ण ध्वनि निर्धारित की है । डा. मधुसूदन मिश्र ने भी इस चिह्न को ण ध्वनि ही प्रदान की है । डा. फतहसिंह ने पशुओं के चित्रों में पशुओं के वामावर्त या दक्षिणावर्त होने का जो निर्वचन किया है, वह काल की सीमा को लांघकर आज भी अकाट्य है । जिन चिह्नों को डा. फतहसिंह ने चित्र रूप में अन्न, इन्द्र, वृत्र आदि माना है, वह ठीक है या गलत, इसका कोई संतोषजनक उत्तर अभी तक नहीं मिल पाया है । इसी प्रकार डा. फतहसिंह ने एक दो - मुंहे पशु का जो निवर्चन उपनिषदों के आधार पर किया है (द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया इति), वह भी अकाट्य है । कुछ चिह्न ऐसे हैं जहां डा. राव और डा. मिश्र के निर्णयों में काफी समानता है । झंडे की आकृति वाले चिह्न को डा. राव तथा डा. मिश्र दोनों ने ही र ध्वनि प्रदान की है । मनुष्य की आकृति वाले चिह्न के लिए डा. मिश्र ने र ध्वनि निर्धारित की है जबकि डा. राव ने ऋ । तीर के आकार के चिह्न के लिए डा. मिश्र ने ष ध्वनि निर्धारित की है जबकि डा. राव ने श ध्वनि निर्धारित की है । मिस्री सभ्यता के लेखों में क को देह और ब को आत्मा माना गया है । मिस्र की लिपि के अनुरूप ही, डा. एस. आर. राव ने चिह्न को क ध्वनि प्रदान की है । और आश्चर्यजनक रूप में, डा. मधुसूदन मिश्र ने भी इस चिह्न की यही ध्वनि निर्धारित की है । अन्त में, सिन्धु लेखों के निवर्चन के प्रयासों के संदर्भ में डा. जी. आर. हण्टर का उल्लेख किए बिना यह लेख अधूरा ही रहेगा । डा. हण्टर ने अधिकांश रूप में ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु लिपि के चिह्नों की ध्वनियां निर्धारित करने का प्रयास किया । जो ध्वनियां हण्टर द्वारा निर्धारित की गई हैं, उनमें से कुछ डा. मिश्र द्वारा निर्धारित ध्वनियों से मेल रखती हैं ।
सिन्धु लिपि में ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक - फतहसिंह ( राजस्थान प्राच्य विद्या शोध प्रतिष्ठान, जोधपुर, १९६९)
This page was last updated on 12/05/10. |