CONTRIBUTION OF FATAH SINGH 

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Veda Study

 

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Wadhva on Fatah Singh

Introduction

Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

Single - multiple waters

Polluted waters

Indu

Kabandha

Barhi

Trita

naukaa

nabha

Sindhu

Indra

Vapu

Sukham

Eem

Ahi

Vaama

Satya

Salila

Pavitra

Swah

Udaka

 

In order to achieve the oneness of Indra and Indu, one has to spread the Barhi/kusha grass( In somayaaga, the whole place is covered with kusha grass on several occasions). Barhi bears the adjective 'earlier one'  when it is spread by Pavamaana Soma and it is this pavamaana soma which remains active in different divine powers. Suns sit over this barhi. The more is the descending of divine soma or Indu from the highest level of bliss, the more is spread of barhi. The reason for calling it Praacheenabarhi(the earlier one) is that it's extension in eastern direction, which is the direction of 'knowledge of work' in mythology, imparts it efficiency. Barhi is derived from the same root from which word Brahma is derived. Therefore, different levels of barhi are denoted by word 'brahmaani'. All this activity is performed to attract divine powers. In spirituality, barhi can be called our thinking faculty(mind, wisdom, unconscious mind/chitta, ego). Normally, it's extension remains limited to grosser levels of individuality. With penances, it starts spreading to higher levels also.

First published on internet : 9-3-2008 AD( Faalguna shukla dviteeyaa, Vikrami samvat 2064)

वेद में उदक का प्रतीकवाद

- सुकर्मपाल सिंह तोमर

(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोधप्रबन्ध)

बर्हि

इन्द्र और इन्दु के अभेदपद की प्राप्ति के लिए साधक को पहले बर्हि स्तीर्ण करनी पडती है । उस बर्हि को प्राचीन बर्हि कहा जाता है जिसको वस्तुतः पवमान सोम ही अपने ओज के द्वारा स्तीर्ण करता हुआ विभिन्न देवशक्तियों में गतिशील रहता है -

बर्हि: प्राचीनमोजसा पवमान: स्तृणन् हरि: । देवेषु देव ईयते ।। - ऋग्वेद ९.५.४

          इस प्राचीन बर्हि: को 'सहस्रवीर' भी कहते हैं जिस पर आदित्यगण विराजमान होते हैं ( प्राचीनं बर्हिरोजसा सहस्रवीरमस्तृणन् । यत्रादित्या विराजथ ।। - ऋ. १०.१८८.४ ) । इसका अभिप्राय है कि आनन्दमय कोश से जिस अनुपात में परब्रह्म के आनन्द रस रूपी सोम अथवा इन्दु का अवतरण होता है, उसी अनुपात में यह बर्हि स्तीर्ण होने लगती है । यह प्राची नामक कार्यज्ञान की दिशा की ओर उन्मुख होकर दक्षशील होती है, अतएव इसको 'प्राचीन बर्हि:' कहा जाता है । बर्हि: शब्द उद्यमानार्थक, वृद्ध्यर्थक बृह धातु से निष्पन्न होने के कारण ऊपर की ओर वर्धमान अथवा गतिशील तत्त्व है । इसके उत्तरोत्तर स्तरों को सूचित करने वाला ब्रह्माणि शब्द भी उसी बृह धातु से निष्पन्न है । आन्तरिक ध्यान यज्ञ की प्रक्रिया के अन्तर्गत देवशक्तियों को आकर्षित करने वाली तथा शुद्धिकरण के फलस्वरूप उसको मेघरूप देने वाली यह समस्त गतिविधि परमेश्वर इन्द्र के आह्वान के लिए की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र में संकेतित है -

अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोम: । स्तीर्णं बर्हिरा तु शक्र प्र याहि पिबा निषद्य वि मुचा हरी इह ।। - ऋग्वेद १.१७७.४

          यह बर्हि वस्तुतः साधक का अन्त:करण है । अतएव बर्हि: को अन्तरिक्ष नामों में भी सम्मिलित किया गया है । वही अन्त:करण रूपी बर्हि: देवव्यचा कही जाती है, क्योंकि यही वह ऊर्ध्वगातु है जो अध्वर नामक आन्तरिक यज्ञ में बनाया जाता है और जिसके परिणामस्वरूप देदीप्यमान रज:कणों का प्रारम्भ होने लगता है तथा हमारा ज्ञानाग्नि रूपी होता मनोमय आकाश के केन्द्र में आसीन हो जाता है ( ऊर्ध्वो वां गातुरध्वरे अकार्यूर्ध्वा शोचींषि प्रस्थिता रजांसि । दिवो वा नाभा न्यसादि होता स्तृणीमहि देवव्यचा वि बर्हि: ।। - ऋ. ३.४.४) । बर्हि: के इसी स्वरूप के सम्बन्ध में साधक के प्राण परिबृंहण करने लगते हैं तो उनको भी बृह धातु से निष्पन्न बृहन्ता कहा जाता है ( ऋग्वेद २.११.१६) । इसी प्रकार साधक का मनोमय कोश रूपी द्यौ तथा प्राणान्नमय रूपी पृथिवी की संयुक्त इकाई द्यावापृथिवी भी बृहती कही जाती है ( ऋग्वेद १.१४४.६) । अन्त:करण रूपी बर्हि: का विस्तार मनीषी लोग वहां तक करते हैं जहां तक वह बर्हि आनन्द रूपी घृत से सराबोर होकर घृतपृष्ठ कही जाती है और जहां ब्रह्म के अमृतत्व का साक्षात्कार हो जाता है ( स्तृणीत बर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिण: । यत्रामृतस्य चक्षणम् ।। - ऋ. १.१३.५) । सम्भवतः इसी स्तर को वह बर्हि पद कहा जाता है जिसके कारण इस शब्द की गणना पद नामों में की गई है । इसी बर्हि पर उस दैव्य जन को आसीन किया जाना साधना का लक्ष्य है जिसे हम परमेश्वर इन्द्र अथवा परब्रह्म कह सकते हैं ( ऋ. १.४५.९) ।

          बर्हि के स्तरण को ही, एक दृष्टि से अनावरण भी कहा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः बर्हि की यह बर्हण - प्रक्रिया अहंकार के प्रभाव में आवृत तथा बद्ध रहती है, जो कि साधना के फलस्वरूप अनावृत्त तथा मुक्त होकर स्तीर्ण होने लगती है, जिसके फलस्वरूप आपः भी मुक्त होकर अपने पद को ग्रहण करते हैं, अर्थात् प्रवाहित होने लगते हैं ( ऋ. ८.१०२.१४) । यहां यह भी स्मरणीय है कि इस बर्हि को त्रिधातु कहा जाता है, क्योंकि अहंकार के प्रभाव में वह केवल अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश की शक्तियों से ही सम्बन्ध रखती है और अहंकार से मुक्त होने पर वह विज्ञानमय कोश की ओर भी गतिशील होती है । इसी दृष्टि से, अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह आनन्दमय कोश रूपी दिव से और विज्ञानमय कोश रूपी अन्तरिक्ष से वरुण और इन्द्र को ले आए और सब देवों को उक्त त्रिधातु पर आसीन करे ( ऋ. १०.७०.११) । अन्तरिक्ष रूपी बर्हि के सम्बन्ध से ही पवमान सोम को बर्हि: कहा गया प्रतीत होता है ( प्र तु द्रव परिकोशं नि षीद नृभि: पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तो ऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति - ऋ. ९.८७.१) । पवमान सोम तथा इन्द्र के प्रभाव से ही शुष्ण कुयव जैसा सहस्रों आसुरी शक्तियों का वर्धन(या बर्हण) रुक जाता है । अतः उस आसुरी शक्ति को रोकने के लिए 'निबर्ह:' क्रिया का प्रयोग किया जाता है, जो उसी धातु से निष्पन्न है जिससे कि बर्हि: ।

 

This page was last updated on 07/30/10.