CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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सिन्धु की त्रिविध बुद्धि यद्यपि इस प्रकार सिन्धुमाता सरस्वती के वर्णन से बुद्धि के सरस्वती पक्ष को अधिक महत्त्व मिल गया है, पर वस्तुतः सिन्धु के सरस्वती, इडा और भारती नाम से तीन पक्ष हैं । इन्हीं को 'तिस्रो देवी:' ( ऋ. ३.४.८) भी कहा जाता है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सिन्धु का सलिल एक युञ्ज है जिसमें महान् आत्मा और उसकी महद् बुद्धि एक संयुक्त इकाई के रूप में हैं । अतः इस इकाई को बुद्धि(धिषणा) और स्वस्ति अग्नि भी कहा जाता है और अग्नि को, इसी आधार पर, अदिति, भारती, इडा तथा सरस्वती के रूप में भी स्मरण किया जाता है - त्वमग्ने अदितिर्देव दाशुषे त्वं होत्रा भारती वर्धसे गिरा । त्वमिळा शतहिमासि दक्षसे त्वं वृत्रहा वसुपते सरस्वती ।। - ऋ. २.१.११ अदिति अखण्ड और अव्याकृत रूप है । वह सरस्वती, इडा और भारती नाम से तीनों पक्षों में व्याकृत होती है । अदिति(महत्) को अरस्तु की शुद्ध बुद्धि और इस्लामी परम्परा की अल - अक्ल कह सकते हैं । मानव जीवन में यही बुद्धि क्रिया, ज्ञान और भावना की शक्तियों में प्रकट होती है । जैसा कि आगे के विवेचन से स्पष्ट होगा, ये ही तीनों शक्तियां वेद में क्रमशः सरस्वती, इडा और भारती नाम से जानी गई हैं । यद्यपि निम्न स्तर पर ये तीनों अलग - अलग देखी जा सकती हैं, पर अष्टम काष्ठा(सिन्धु) के स्तर पर वे उससे अभिन्न, उसके ही तीन पक्ष हैं जिन्हें द्वार: कहा जाता है । ये द्वार: (बहुवचन) हैं जो अपनी महद् बुद्धियों(महद्भि: ) द्वारा देव - रथ( जायमान महान् आत्मा) को धारण करती हैं ( ऋ. १०.७०.५) अथवा द्वारो देवी: हैं जो अलंकृत स्त्रियों के समान अपने पतियों(आत्मा की विविध विभूतियों) के निमित्त विविध रूप ग्रहण करती हैं (ऋग्वेद १०.११०.५, ५.५.५) , अथवा द्वार: हैं जिन्हें इन्द्र ने अनन्त अश्म में छिपी निधि को बाहर निकालने के लिए खोला( ऋ. १.१३०.३) । द्वार: देवी: के लिए प्रायः उर्विया, सुप्रायणा वा अजुर्या विशेषणों तथा विश्रयन्ताम् क्रिया का प्रयोग होता है ( ऋ. १.१३.६, २.३.५, १.१४३.६) और वे देवों के लिए फैलाने वाली वा विविध रूप धारण करने वाली हैं (ऋ. २.३.५), यद्यपि वे मूलरूप में पवमान सोम से सुष्टुत और हिरण्यय हैं ( ऋ. ९.५.५) । विविध रूप ग्रहण करने का अभिप्राय है अष्टम काष्ठा के हिरण्यय रूप को छोडकर नीचे की काष्ठाओं की नानात्वमयी यज्ञसृष्टि में परिणत होना । इसी बात को स्पष्ट करते हुए, सुन्दर रूप वाली तीन देवियों(सरस्वती, इडा और भारती) को पवमान की मही कहा गया है और उन्हें हमारे यज्ञ में आने के लिए आहूत किया गया है - भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही । इमं नो यज्ञमा गमन् तिस्रो देवी: सुपेशस: ।। - ऋ. ९.५.८ तीन द्वारों वा देवियों के रूप में कल्पित महद् बुद्धि के तीनों पक्षों के पृथक् - पृथक् स्वरूप की ओर भी संकेत मिलता है । इस दृष्टि से सरस्वती का सम्बन्ध कर्मवाचक अपस् ( ऋ. १०.११०.८) से विशेष महत्त्व रखता है । वह अपसामपस्तमा ( ऋ. ६.६१.१३) अर्थात् कर्मों में सर्वाधिक क्रियाशील कही जाती है । अतः वह महद् बुद्धि के क्रियापक्ष की द्योतक प्रतीत होती है । भारती का विशेषण विश्वतूर्ति ( ऋ. २.३.८) भावनात्मक त्वरण का सूचक है । अतः भारती को महत् के भावना पक्ष का प्रतीक माना गया प्रतीत होता है । भारती को वरूत्री ( आवरण करने वाली ) बुद्धि ( ऋ. १.२२.१०) कहना भावना के सम्मोहक पक्ष की ओर ही संकेत करता है । भावना निस्सन्देह मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ओतप्रोत करके क्षणभर में उसके क्रिया और ज्ञान को प्रभावित कर देती है । सरस्वती और भारती से भिन्न स्वरूप इडा का है । इडा और इड का विशेष सम्बन्ध संज्ञान(ऋ. १०.१९१.१-२) अर्थात् ज्ञानशक्ति से है । ज्ञान शक्ति को प्रायः अग्नि - रूप में कल्पित किया जाता है । तदनुसार इडा भी समिद्ध होती है और अग्नि के सुदीप्त वरेण्य रूप को धारण करती है । इडा को जब मनुषस्य शासनी(ऋ. १.३१.११) कहा जाता है तो भी इसका अभिप्राय यही है कि मनुष्य के ऊपर क्रिया अथवा भावना की अपेक्षा ज्ञानशक्ति का ही शासन होना चाहिए और होता है । फिर भी, व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर, भावना और ज्ञान, दोनों में क्रिया का समावेश मिलेगा । अष्टम काष्ठा का महान् आत्मा जब अन्य काष्ठाओं के नानात्व में व्यक्त होता है तो वह सब देवों में सर्वाधिक क्रियाशील(अपसामपस्तम: ( ऋ. १.१६०.४) उसी प्रकार कहा जाता है जिस प्रकार महद् बुद्धि की प्रतीक सिन्धु के लिए अपसामपस्तमा( ऋ. १०.७५.७) विशेषण का प्रयोग होता है । सामान्य भाषा में भी, भावना करने और जानने को क्रिया के अन्तर्गत ही रखते हैं । इसका अर्थ यह है कि भावना और ज्ञान दोनों ही क्रियामूलक हैं । कम से कम निचली सप्त काष्ठाओं के स्तर पर तो यह स्पष्ट ही है । हां, नवम काष्ठा की बात दूसरी है, जहां नवगज्जनित्री अखण्ड बुद्धि( अदिति) स्थिर हो जाने से सभी यज्ञकर्म रुक जाते हैं । जब अष्टम काष्ठा में उसका व्रतप्रसव आत्मा(यज्ञ) को सक्रिय करता है, तब से तो क्रिया और तन्मूलक भावना और ज्ञान का आरम्भ मानना ही पडेगा । अतः अष्टम काष्ठा(सिन्धु) में महद् बुद्धि के तीनों पक्षों का उद्रेक स्वीकार करना होगा । पर वह अनेकत्व नहीं, एकत्व होगा । इसीलिए इन तीनों को उससे अभिन्न, द्वार: माना गया है । जैसे एक घर में तीन द्वार होने पर भी घर एक ही रहता है, वैसे ही भावना - ज्ञान - क्रिया का उद्भव होने पर भी अष्टम काष्ठा एक ही रहती है । हमने देखा कि महत् तत्त्व किस प्रकार सिन्धु सरस्वती होकर हमारी सभी चेतना - धाराओं को बीज रूप में धारण किए हुए तिस्रो देवी: नामक इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति की त्रिविधता को प्राप्त करके हमारी समस्त चित्तवृत्तियों, संकल्पों - विकल्पों और क्रियाओं के रूप में नानात्व ग्रहण करती है । यही सरस्वती नामक मूल चेतना धारा अहंकार रूप वृत्र का वध करने के कारण वृत्रघ्नी बनी और इसी ने सप्तविधा आपो देवी: को त्रिविधता प्रदान करके हमारे व्यक्तित्व के कण - कण में पहुंचाया, जिसके परिणामस्वरूप हमारे अन्धकार - लिप्त जीवात्मा को नई स्फूर्ति, नया जीवन और नया जन्म प्राप्त हुआ ।
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