CONTRIBUTION OF FATAH SINGH 

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Veda Study

 

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Wadhva on Fatah Singh

Introduction

Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

Single - multiple waters

Polluted waters

Indu

Kabandha

Barhi

Trita

naukaa

nabha

Sindhu

Indra

Vapu

Sukham

Eem

Ahi

Vaama

Satya

Salila

Pavitra

Swah

Udaka

 

    In the next section of this hymn, there is talk of several steps of Vishnu. At first sight, this section seems to be irrevalent with the context of this hymn. But the reality is that those waters which have seeped into lower levels give rise to steps of Vishnu. Steps of Vishnu is nothing but the steps of pure waters. At the first stage, the first step of Vishnu is supposed to eradicate all the evils from earth. The next step from sky, the next from heaven and so on.  Until the pure waters seep from the highest level, the mortal soul remains lying as a dwarf. As soon as the divine waters start seeping, this dwarf becomes all pervading.

            The three steps of Vishnu on earth, sky and heaven can be said as three steps in gross level of the body, in ethereal level and in causal level. After that the sequence of steps changes. Earlier, these steps were from lower to upper direction. Now this has changed along different directions, for eradication of evil from there. It means that it revolves now as a wheel. It seems that this may be the seed of the wheel weapon of lord Vishnu in puraanic literature.

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Further comments on Aapah/waters

हमारे ये निष्पाप आपः सम्पoर्ण अनृत, दुरित, एनस्, दुष्वप्न्य और मल को दूर कर देते हैं -

यदर्वाचीनं त्रैहायणादनृतं किं चोदिम आपो मा तस्मात् सर्वस्माद् दुरितात् पान्त्वंहस: ।।

समुद्रं : प्र हिणोमि स्वां योनिमपीतन अरिष्टाः सर्वहायसो मा नः किं चनाममत् ।।

अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत् प्रास्मदेनो दुरितं सुप्रतीका: प्र दुष्वप्न्यं प्र मलं वहन्तु ।। - अथर्व १०..२२-२४

          ऊपरी कोशों से प्रवाहित होने वाला यह दिव्य आपः नीचे के कोशों में विष्णुक्रम(विष्णुविक्रमण) को जन्म देता है अतः आपः को सम्बोधित करते हुए कहा जाता है कि तुम्हीं विष्णु के वह क्रम हो जो शत्रुसंहारक, पृथ्वीशंसित, अग्नितेज: है इसकी सहायता से हम पृथ्वी का अनुक्रमण करते हैं और पृथ्वी से उसको निष्कासित करते हैं जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं । वह जिये, प्राण उसको त्याग दें इसी प्रकार शत्रुनाशक, अन्तरिक्षशासित, वायुतेज, विष्णुक्रम कहकर अन्तरिक्ष का अनुक्रमण करके अन्तरिक्ष से उक्त शत्रु को निष्कासित करने की बात कही जाती है द्यौ की दृष्टि से, शत्रुनाशक यही विष्णुक्रम द्यौ शंसित, सूर्य तेज कहा जाता है जिसके द्वारा द्यौ का अनुक्रमण करके उक्त शत्रु को द्युलोक से निष्कासित किया जाता है जब तक दिव्य आपः का ऊपर से क्षरण नहीं होता, तब तक जीवात्मा बौना/वामन बन कर पडा रहता है और दिव्य आपः का प्रवाह आने पर वही वामन विराट् विष्णु रूप होकर विक्रमण करने लगता है -

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा पृथिवीसंशितोऽग्नितेजा: पृथिवीमनु वि क्रमेऽहं पृथिव्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहान्तरिक्षसंशितो वायुतेजा: अन्तरिक्षमनु वि क्रमेऽहमन्तरिक्षात् तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा द्यौसंशितः सूर्यतेजा: दिवमनु वि क्रमेऽहं दिवस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु अथर्व १०..२५-२७

          उक्त तीनों विक्रमण वस्तुतः अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों में होते हैं, जिन्हें यहां क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ माना गया है इन तीन विक्रमों के बाद उक्त विष्णुक्रम का रूप बदल जाता है पहले वह नीचे से ऊपर को गति करता था, परन्तु अब वह शत्रुनाशक दिव:शंसित, मनस्तेज: होकर दिशाओं का अनुविक्रमण करता है और इस प्रकार सभी दिशाओं से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित कर देता है इसका अर्थ है कि अब विष्णुक्रम चक्रवत् घूमने लगता है संभवतः पौराणिक विष्णु के चक्रायुध रूप की कल्पना का आधार यही है -

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा दिक्संशितो मनस्तेजा: दिशोऽनु वि क्रमेऽहं दिग्भ्यस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।। - अथर्व १०..२८

          इसी प्रकार पूर्वोक्त आपश्चन्द्रा: विष्णुकर्म रूप में वाततेज:, सामतेज:, ब्रह्मतेज:, सोमतेज: और वरुणतेज: होकर क्रमशः आशाओं, ऋचाओं, यज्ञ, ओषधि और आपः/अहिगोपा: से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित करने का काम करते हैं -

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाशासंशितो वाततेजा: आशा अनु वि क्रमेऽहमाशाभ्यस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा ऋक्संशितो सामतेजा: ऋचोऽनु वि क्रमेऽहमग्भ्यस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा यज्ञसंशितो ब्रह्मतेजा: यज्ञमनु वि क्रमेऽहं यज्ञात् तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: ।।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहौषधीसंशितः सोमतेजा: ओषधीरनु वि क्रमेऽहमोषधीभ्यस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

अपोऽनु वि क्रमेऽहमद्भ~यस्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।। - अथर्व १०..२९-३३

          इसके पश्चात् जिस शत्रुनाशक विष्णुक्रम का उल्लेख है, वह कृषि शंसित/अन्नतेज कहा गया है जो पूर्वोक्त शत्रु को कृषि से दूर भगाता है यह कृषि शब्द खेती बाडी का द्योतक नहीं है कृषि वेद की कृष~, कृष्टि, कृष्टिहा आदि शब्दों से जुडी है तदनुसार कृषि शब्द कर्षणवाचक है असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, तम से ज्योति की ओर जो कर्षण होता है, उसमें हमारा अहंकार रूप अहि बाधक होता है अतः वहां से भी उक्त शत्रु को बाहर निकालने की आवश्यकता होती है कृषि शब्द की व्याख्या की पुष्टि इस बात से होती है कि विष्णुक्रम के अन्य सभी वर्णन आध्यात्मिक क्षेत्र से ही सम्बन्धित हैं -

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा कृषिसंशितोऽन्नतेजा: कृषिमनु वि क्रमेऽहं कृष्यास्तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।। - अथर्व १०..३४

          विष्णुक्रम को शत्रुनाशक, प्राणशंसित, पुरुषतेज कहकर उसके द्वारा प्राणों से अहंकार नामक अहि को निष्कासित करने का उल्लेख करके कहा गया है कि मेरी विजय हो गई , मैंने अपने सब शत्रुओं को छिन्न - भिन्न कर दिया और अब मैं परलोकस्वामी के पुत्र के वर्चस्, तेजस्, प्राण तथा आयु को अपने में निवेष्टित करता हूं और उस अहंकार रूप अहि को नीचे पैरों से कुचल रहा हूं -

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा प्राणसंशितः पुरुषतेजा: प्राणमनु वि क्रमेऽहं प्राणात् तं निर्भजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ।।

जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमभ्यष्ठां विश्वा: पृतना अराती: इदमहमामुष्यायणस्यामुष्या: पुत्रस्य वर्चस्तेज: प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ।। - अथर्व १०..३५-३६

          पूर्वोक्त मन्त्र में जिसको परलोक स्वामी कहा है, वह सूर्य प्रतीत होता है, क्योंकि अगले मन्त्र में साधक कहता है कि अब मैं सूर्य के मन्त्रों से आवृत्त होकर दक्षिण दिशा में आवर्तन कर सका, जिससे मुझे उस दिशा से ब्रह्मणवर्चस् प्राप्त हो जाए इसी प्रकार ज्योतिष्मती दिशाओं, सप्तर्षियों तथा ब्राह्मणों में अभ्यावर्तन करके द्रविण और ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति चाही गई है -

सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते दक्षिणामन्वावृतम् सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसम् ।।

दिशो ज्योतिष्मतीरभ्यावर्ते ता मे द्रविणं यच्छन्तु ता मे ब्राह्मणवर्चसम् ।।

सप्तऋषीनभ्यावर्ते ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ।।

ब्रह्माभ्यावर्ते तन्मे द्रविणं यच्छतु तन्मे ब्राह्मणवर्चसम् ।।

ब्राह्मणाf अभ्यावर्ते ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ।। - अथर्व १०..३७.४१

          अगले तीन मन्त्रों में साधक कहता है कि जिस शत्रु की खोज हम कर रहे हैं, उसको हम दिव्य आयुधों से, वैश्वानर के दांतों से अथवा राजा वरुण के पाश में बांधकर नष्ट कर दें अन्त में दिव्य आपः की याचना करते हुए अग्नि से वर्चस् सहित किसी 'आगम' के सृजन की प्रार्थना की गई है और उसके साथ ही प्रजा, आयु आदि की इच्छा करते हुए यह प्रार्थना की गई है कि ऋषियों सहित इन्द्रदेव को जानें और अग्नि यातुधानों का हृदय वेधन करे, मूरदेवों को नष्ट करे अन्त में, सूक्त का उपसंहार करते हुए साधक कहता है कि शीर्षवेधन योग्य अपने अहंकार रूप अहि पर इस प्रकार आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का प्रहार करता हूं जिससे वह वज्र उसके सभी अङ्गों को o - o कर दे और मेरे इस कार्य को विश्वेदेवा: जान लें यहां आपः के चतुर्भृष्टि वज्र से अभिप्राय उसी विष्णुक्रम से प्रतीत होता है जो चारों दिशाओं में गतिशील हुआ था और जिसका वर्णन उपर्युक्त कईं मन्त्रों में किया जा चुका है

          यहां जिन आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का उल्लेख है, वे निस्सन्देह वही आपश्चन्द्रा: हैं जो उक्त सम्पoर्ण सूक्त के देवता हैं और जिन्हें विभिन्न देवों का अंगभूत मानते हुए 'आपः देवी:' कहा गया है

 - अपामस्मै वज्रं प्र हरामि चतुर्भृष्टि शीर्षभिद्याय विद्वान् सो अस्याङ्गानि प्र शृणातु सर्वा तन्मे देवा अनु जानन्तु विश्वे ।। - अथर्व १०..५०