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Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

Single - multiple waters

Polluted waters

Indu

Kabandha

Barhi

Trita

naukaa

nabha

Sindhu

Indra

Vapu

Sukham

Eem

Ahi

Vaama

Satya

Salila

Pavitra

Swah

Udaka

 

There exist 101 synonyms for word Udaka/water in vedic glossary and all of these have been assigned a common name Udaka. The question is - does this one name really involves in itself the meaning of all other 100 synonyms? To examine this question, one will have to unravel the meaning of Udaka. Actually, Udaka represents not any simple water, but the water of life, the life forces. These waters of life may be of two kinds - one which go upward and the others which come downwards. And there is a third type which neither goes upwards, nor comes downwards, which is beyond these two traits. This type of Udaka has been assigned a special adjective in vedic mantras.. 

Puraanic view of Udaka

Other comments on Udaka

First printed on internet : 17-4-2008 AD( Chaitra shukla dwaadashee, Vikrama samvat 2065)

वेद में उदक का प्रतीकवाद

- डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर

(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ . में स्वीकृत शोध प्रबन्ध )

उदक और पर्जन्य

वैदिक निघण्टु में उदक के १०१ पर्यायवाची नाम हैं जिनकी सामान्य संज्ञा उदक नामानि है यहां यह प्रश्न होता है कि यदि उदक शब्द ऊर्ध्वगामी उदान प्राण का प्रतीक है तो निघण्टु में उदक शब्द को अन्य सभी उदकनामों का द्योतक क्यों माना गया है ? क्या वे सभी उदकनाम उदान प्राण के बोधक हैं ? इस प्रसंग में अथर्ववेद का ३.१३ सूक्त महत्त्वपूर्ण सूचना देता हुआ प्रतीत होता है इस सूक्त में कुल सात मन्त्र हैं इन सभी में उदक के ही विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है वे नदन करते हैं, अतः उनका नाम नद्य: है और उन्हीं को सिन्धव: कहा जाता है ( मन्त्र ) वे वरुण के द्वारा प्रेषित होने पर इन्द्र द्वारा आप्त (प्राप्त या व्याप्त ) हुए, इसलिए उनका नाम आपः हुआ ( मन्त्र ) इन्द्र ने उनको अपनी शक्ति के द्वारा वरण किया, अतः उनका नाम ''वा:'' अथवा ''वारि'' है ( मन्त्र ) इनमें जो भद्र आपः थे, वे घृतस्वरूप थे, जिन्हें अग्नीषोम की संयुक्त इकाई ने धारण किया और वे ही रस कहलाए ये ही हिरण्यवर्णा आपः अमृत को आत्मसात् करते हैं ( मन्त्र ) इन्हीं आपः का एक रूप ''ऋतावरी आपः'' नाम से जाना जाता है मनुष्य का हृदय ही इनका हृदय है  और यहीं शक्वरी नामक आपः प्रविष्ट किए जाते हैं ( मन्त्र ) इसी सूक्त के मन्त्र ४ का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है, जिसमें उदक शब्द की व्युत्पत्ति उत् + उन् से की गई है और जिस पर अधिष्ठित एक ही देव माना गया है

        इस विवेचन से स्पष्ट है कि उदक शब्द से केवल ऊर्ध्वगामी उदान प्राण ही अभिप्रेत नहीं है, अपितु प्राणों के विभिन्न रूपों और रूपान्तरों की ओर इस उदक शब्द के द्वारा संकेत किया जा सकता है अतः वेद में उदक शब्द को सामान्य जल का वाचक मानकर प्राणोदक (प्राण रूपी जल ) का द्योतक कहा जा सकता है इस दृष्टि से ऋग्वेद के निम्नलिखित दो मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -

समानमेतदुकमुच्चैत्यव चाहभि: भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ।।

दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम् अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि ।। - . .१६४.५१- ५२

        यहां प्रथम मन्त्र में एक ''समानम् उदकम्'' का उल्लेख है वह ऊर्ध्व गति भी करता है और अधोगति भी ऊर्ध्व गति द्वारा अग्नियां द्यौ(दिव) का प्रीणन करती हैं और अधोगति में पर्जन्य भूमि का प्रीणन करते हैं अभिप्राय यह है कि जो 'समानम् उदकम्' मूलतः अद्वैत एक है, वह आरोहण और अवरोहण क्रम में द्विविध हो जाता है उदक के इसी अद्वैत रूप को दूसरे मन्त्र में सुपर्ण, वायस तथा बृहत् होता हुआ (बृहन्तं) अपां गर्भ कहा है बृहन्तं की व्याख्या करते हुए मानों कहा गया है कि वह अपनी वर्षाओं के द्वारा तृप्त करने वाला सरस्वान् व्यक्तित्व है और उसी रूप में वह आहवनीय भी है

        दूसरे शब्दों में, उस अद्वैत उदक के वर्षणशील पर्जन्य रूप को ही ''बृहन्तम्'' अपां गर्भ कहा है इस वर्षणशील उदक का ही नाम सर: है जिससे युक्त होने के कारण वह अपने इस बृहत् और वर्षणशील रूप में सरस्वान् कहा जाता है इससे सिद्ध होता है कि उदक शब्द मुख्यतः प्राण की उदञ्चनशीलता का द्योतक है, परन्तु उसका यह ऊर्ध्वगामी रूप एक अधोगामी रूप की भी अपेक्षा रखता है अतएव इस द्विविध गति से परे उदक के एक अन्य ऐसे रूप की कल्पना की गई है जिसमें ऊर्ध्वगति और अधोगति का अन्त हो जाता है यही ''समानम् उदकम्'' है जब यह पर्जन्य वृष्टि करने लगता है तो उसे उदक नामों में परिगणित सर नाम दिया जाता है ''सर:'' से युक्त व्यक्तित्व ही सरस्वान् है

उदक और वाक्

        प्रश्न होता है कि ''समानम् उदकम्'' की इस पर्जन्य वृष्टि का क्या तात्पर्य है ? ''ढाई अक्षर वेद के'' पुस्तक में बताया गया है कि योग की घर्ममेघ समाधि के मेघ को ही वेद में पर्जन्य कहा गया है (पृष्ठ संख्या १५; ७९-८०) इससे शुद्ध प्राण रूप आपः की वृष्टि होती है जिसके फलस्वरूप अहंकार रूपी वृत्र का वध होता है और ''अवर इन्द्र''(जीव) सबल होकर महेन्द्र कहलाता है योग साधना से सिद्ध होने वाली समाधि में जो आनन्दवृष्टि होती है, उसी को सोम की वृष्टि कहा जा सकता है और वही भद्र आपः अथवा शुद्ध आपः की वृष्टि भी है इस स्थिति से पूर्व मनुष्य के आपः (प्राण) अहंकार रूपी वृत्र के चंगुल में फंसे रहते हैं जिससे उनमें काम, क्रोध आदि सर्पों का विष उन्हें अभद्र, विषाक्त तथा अशुद्ध बना देता है यह विष शब्द भी उदक नामों में परिगणित है यह वस्तुतः शुद्ध उदक(प्राण) का ही अशुद्ध हुआ रूप है जिसे विष कहा जाता है

        स्वयं वेदमन्त्रों में, इस शुद्ध उदक का पान करना साधना का वह लक्ष्य है जिसको प्राप्त करके साधक भगवान् होने की कामना कर सकता है -

सूयवसाद् भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्त: स्याम अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ।। - . .१६४.४०

        इस मन्त्र में आत्मा की वाक् शक्ति को अघ्न्या कहकर यह संकेत किया गया है कि उसे अहंकार रूपी वृत्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, अतः उससे निश्चिन्त होकर अहंकार जनित कषाय रूपी तृण को खाने तथा शुद्ध उदक पीकर आचरणशीला होने की अपेक्षा की गई है यही आत्मशक्ति भगवती कही गई है और उसके भगवती रूप को पाकर ही साधक भगवान् हो सकता है

        इस मन्त्र से अगले मन्त्र में, उसी आत्मा की वाक् शक्ति को गौरी कहा गया है जो उक्त ''समानम् उदकम्'' को अनेक (''सलिलानि'') में परिणत करती हुई एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी और नवपदी हो जाती है, यद्यपि वह मूलतः परम व्योम में स्थित सहस्राक्षरा वाक् है -

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ।। - . .१६४.४१

उदक और उदन्

        उदक की प्राणरूपता की ओर इंगित करने के लिए ऋग्वेद में उदन् शब्द भी आता है, जिसको भाष्यकारों ने उदक के अर्थ में ग्रहण किया है उदाहरण के लिए, निम्नलिखित मन्त्रों में प्रयुक्त इस शब्द के अनेक रूपों का सायण द्वारा स्वीकृत अर्थ द्रष्टव्य है -

. उदन् -- -- - - उदके ( ऋग्वेद .१०४.)

. उदनि - - - - उदके( . .११६.२४, १०.६७.)

.उदनिमान - - उदकमान( . .४२.१४)

. उदन्यजा: इव - - - -उदके भवं उदन्यं, तस्मात् जाता: उदन्यजा: ( . १०.१०६.)

. उदन्यन् - - - उदकं दातुमिच्छन् ( . १०.९९.)

. उदन्यव: - - - - उदकेच्छव: ( . .५४., .८६.२७)

. उदन्यवे - - - - उदकेच्छवे ( . .५७.)

. उदन्या इव - - - उदक सम्बन्धिनीव ( . ..)

. उदन्वता - - - उदकवता ( . .८३.)

१०. उदन्वती: - - - उदकयुक्ता: ( . .५०.)

११. उद्नः इव - - - उदकान् इव ( . .१९.१४)

१२. उद्ना - - - - उदकेन ( . .४५.१०, .८५., .१००., .२०., १०.६८.)

        यह उदन् शब्द निस्सन्देह उसी उत् और अन् धातु से बना है जिससे उदान बना है दोनों में अन्तर यह है कि उदान उद + अन् से निष्पन्न है और उदन् उत्(उद्) + अन् से निष्पन्न है उदान का उद जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण के अनुसार आदित्य का वाचक है अतः उदान प्राण आदित्य से प्राप्त होने वाले प्राणों की ओर संकेत करता प्रतीत होता है, परन्तु उदन् का उत् ऊर्ध्व दिशा का द्योतक है अतः उदन् शब्द मूलतः ऊर्ध्वगामी प्राण का द्योतक रहा होगा उदक शब्द इन दोनों प्राणों का प्रतीक मान लिया गया प्रतीत होता है इसीलिए अथर्ववेद में पूर्वोक्त ''उदानिषु:'' के प्रयोग द्वारा उदक शब्द की व्युत्पत्ति उदान के समान उद + उन् से निष्पन्न है

        यदि उदन् शब्द को उत् पूर्वक अन् प्राणने से निष्पन्न किया जाता है तो इसका अर्थ होगा - ऊपर को सांस लेता हुआ इससे किंचित भिन्न उदान शब्द है जिसको उद + अन् से निष्पन्न किया जाता है और यह उद, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आदित्य का वाचक है अतः उदान का अर्थ होगा - अखण्डता सूचक आदित्य की ओर सांस लेना दूसरे शब्दों में, उदान का सम्बन्ध साधना के उच्चतर स्तर से है, जबकि उदन् का सम्बन्ध किंचित् निम्न स्तर से है जिस उच्चतर स्तर की ओर उदान शब्द संकेत करता है, उस स्तर के प्राणोदक के लिए निघण्टु सूची का अर्ण: शब्द प्रयुक्त होता है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है -

सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णो ऽयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठा: उद्ना नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन् ।। - . .४५.१०

        यहां जिस शुक्र अर्ण पर सूर्य को आरोहण करते हुए बताया गया है, उसी को पूर्वोक्त आदित्यवाचक उद कहा जा सकता है, जो कि उदान शब्द के मूल में है

This page was last updated on 06/10/10.