CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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| There appear several words in vedic mantras which seem to be trivial, and Saayana has treated them so. But when one ponders over traditional glossary of vedic words, one finds that these apparently insignificant words may hide in themselves great meanings. An example of such words may be eem( apparently meaning - to this), idam( apparently meaning - this), u(meaningless letter) etc. But glossary of vedic words says that the words eem and idam are symbolic of water, water of life, in some way or the other. Idam may be indicative of pleasure at mortal level. At immortal levels, this pleasure is called a type of soma. When eem gets united with emotional part of life forces/waters, this becomes Indu. This eem can be elevated to become the seat of goddess Aditi, a seat where it does not decay. Regarding appearance of apparently meaningless letter u in vedic mantras, this letter has been interpreted as the Om of vedic mantras. Om does not appear anywhere in vedic mantras explicitly. Om appears as u only. By concentrating on this u, one may be able to see the inner sins of consciousness, which is not possible otherwise. This u automatically gets united with eem, and this unity is like that of a husband and wife. This unity gives birth to the mortal soul. Mortal soul acquires three powers from it's parents - Ribhu, Vibhu and Vaaja. Moreover, it also receives a cow form his parents. The role of these three powers has been explained in the form of a short story of vedic verses. In a way, the mortal soul receives three servants for serving the divine cow. It has been said in the mantras that one of these powers serves water to the cow, the second one refines her flesh and the third one removes her dung. These three powers can be interpreted as the power of action, power of emotion and power of knowledge. The power of action brings water of life for the cow, power of emotion refines her expression at grosser level (flesh) and the power of knowledge removes her dung/ignorance. First published on internet : 1-4-2008 AD( Chaitra krishna dashamee , Vikramee samvat 2064) वेद में उदक का प्रतीकवाद - डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ ई. में स्वीकृत शोधप्रबन्ध ) ईम् व इदम् इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वे: । शीर्ष्ण: क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापु: ।। - ऋ. १.१६४.७ इस मन्त्र में वाक् की गौ रूप में कल्पना करके उसके अनेक रूपान्तरों को ऐसी गायें कहा गया है जो मनुष्य - व्यक्तित्व के रूप(ववि|) को आच्छादित किए हुए हैं । ये गायें नवपदों में व्यक्त होने वाली पद नामक गति के द्वारा उदक को प्राप्त करती हैं । यह वाक् की अधोगामिनी गति है । इसके विपरीत, इन गायों की एक ऊर्ध्वगामिनी गति भी है जो शीर्ष - स्थानीय हिरण्ययकोश तक पहुंचती है । इस शीर्ष से इन गायों को क्षीर दोहन करने वाली बताया गया है । यहां यह स्मरणीय है कि क्षीर और उदक निघण्टु के उदक नामों में परिगणित हैं । इन दो नामों के अतिरिक्त, इस मन्त्र में एक अन्य उदक नाम ''ईम्'' भी आया है । यह ईम् आत्मारूपी वाम पक्षी का निहित पद कहा गया है । यह छिपा हुआ है, अतः इसको जानने वाले विरले ही होते हैं । इसको जो जानता है, वह बतलावे, ऐसी कामना यहां की गई है । इस पूरे मन्त्र का सारांश यह है कि जिस उदक को ईम् कहा गया है, वह वस्तुतः आत्मा रूपी वामपक्षी का निहित पद है, जिस पद पर विराजमान होकर आत्मा अनिपद्यमान गोपा कहा जाता है । इसी ईम को वाक् अपनी ऊर्ध्वगामिनी गति में उसी के उदक रूप को पाती है । एक अन्य मन्त्र ( ऋ. १.१६१.८) में अधोगामिनी गति से प्राप्तव्य को 'इदम् उदकम्'' कहा गया है, जबकि ऊर्ध्वगामिनी गति से प्राप्त उदक को ''मुञ्जनेजनम्'' नाम दिया गया है जो वस्तुतः सोम है । इस मन्त्र के ''इदम् उदकम्'' के लिए निघण्टु के उदक नामों की सूची में इदम् की भी गणना की गई है । इस दृष्टि से, पहले जिसको क्षीर कहा गया है, वही हिरण्ययकोश से आने वाला मुञ्जवान् सोम सिद्ध होता है । इसके विपरीत, मनुष्य के व्यक्तित्व के स्थूल रूप से सम्बन्धित उदक का नाम ''इदम्'' होगा । ''इदम्'' नामक उदक भी वस्तुतः इन्द्र की वह परम इन्द्रिय है जिसे कवियों (क्रान्तदर्शी प्राणों) ने अपनी पराशक्तियों द्वारा धारण किया था । वह स्थूल देह रूपी क्षमा(पृथिवी) और कारण - देह रूपी दिव में दो भिन्न रूपों में होते हुए भी पिण्डाण्ड में इस प्रकार सम्पृक्त हो रहा है कि मानो वह ''समना केतु''( मानसिक स्तर की प्रज्ञा) हो - तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम् । क्षमेदमन्यद् दिव्य१न्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतु: ।। - ऋ. १.१०३.१ इसी ''इदं'' नामक उदक को विपश्यना द्वारा देखने पर वह हमें अत्यन्त पुष्टश्रत्(सत्य) के रूप में प्राप्त होता है जिसको वीर्यवान् होने के लिए धारण करने की आवश्यकता होती है - तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय । स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्त्स ओषधी: सो अप: स वनानि ।। - ऋ. १.१०३.५ इसको धारण करने वाला अन्य आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ''अप:'' और ''वनानि'' को भी हस्तगत करता है । अप: और वनानि की गणना भी उदक नामों में की गई है । आप् धातु से निष्पन्न आपः शब्द जहां उदक प्राण के व्यापनशील रूप का द्योतक है, वहां ''वन'' वन् कान्तौ से निष्पन्न इच्छा तत्त्व का सूचक है । अतः ''अप: वनानि'' से यहां इच्छा तत्त्व के व्यापनशील रूप की ओर संकेत है । रहस्यमय ''ईम्'' नाम उदक ही दु - गतौ धातु के योग से इन्दु बन जाता है जो कि उदक नामों में परिगणित होने के साथ ही सोम का भी एक नाम है । इच्छा तत्त्वात्मक वन नामक उदक में क्रीडा करता हुआ यह ईम् ही वह इन्दु बन जाता है जिसका मण्डन वाणी रूपी नौकाएं करने लगती हैं - समी सखायो अस्वरन् वने क्रीळन्तमत्यविम् । इन्दुं नावा अनूषत ।। - ऋ. ९.४५.५ यह ''ईम्'' अथवा ''इन्दु:'' वह वाजी हरि है जिसका मार्जन नाडियों रूपी नदियों में ''आयव:'' नामक प्राण करते हैं ( ऋ. ९.६३.१७) । ''ईम् '' नामक उदक का यही सोम रूप मरुत्वान् इन्द्र के लिए सहस्रधार होकर अव्यय तत्त्व को अत्यधिक गतिशील कर देता है ( ऋग्वेद ९.१०७.१७) । इस सोम नामक ईम् को जब मननशील ज्ञानी(मतुथा:) जन्म देते हैं तो वे कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के रूप में दोनों हाथों की अङ्गुलियों के समान उसको रथवत् अदिति के उपस्थ में भेज देते हैं और तब वह अदिति रूपी गौ के अन्तर्हित पद पर पहुंच जाता है ( ऋग्वेद ९.७१.५) । Comments:
Shaiva-darshana has classified world into 2-Aham and Idam. As a Physiscist,
youwill identify them as observer and observed. Maharshi daivarat of Gokarna has
explained in detail the meaning of 'Im' in his sanskrit book-Vedartha Kalpalata-
published by BHU in 1963. AUM is creator, IM is created-like Khuda and Khudai in
Koran. Generally visible
universe is IM. Creator is also called Sa (he), tat (that) etc. Idam (this),
IM-are created universe-Arun Kumar Upadhyay - - - - - - - - - - ईम् और नाम इन्द्र और विष्णु के सहयोग से उस ईम् नामक महान् 'पौंस्यम्' की वृद्धि होती है जो द्यावा - पृथिवी नामक 'मातरा' को 'रेतस्' नामक प्राणोदक भोगने के लिए पूर्ण रूप से सहायक होता है और जिसके फलस्वरूप यह ईम् नामक पुत्र अपने पिता के अवर और पर 'नाम' (उदक नाम) को धारण करता हुआ अन्त में दिव्य प्रकाश में तृतीय 'नाम' को धारण करता है - ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यम् नि मातरा नयति रेतसे भुजे । दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिव: ।। - ऋ. १.१५५.३ 'ईम्' यहां उस प्राणोदक क्रिया के लिए प्रयुक्त है जिसे अहंकार रूप अहि का वध तथा दिव्य आपः (सिंधव: ) की मुक्ति कराने वाला इन्द्र - पौंस्य कहा जाता है । यह कार्य एकाएक नहीं हो जाता । इसके पीछे उस आरोही तथा अवरोही चेतना - युग्म की लम्बी साधना रहती है जिसे मन्त्र में 'मातरा' कहा गया है और जिसे द्यावापृथिवी के युग्म के रूप में भी कल्पित किया गया है । यह चेतना - युग्म जिस रेतस् को भोगना चाहता है, उसे 'सोम', 'ब्रह्म' और 'परमव्योम' कहा गया है ( ऋग्वेद १.१६४.३५) । इसका अर्थ है कि जिस 'रेतस्' को उक्त चेतना युग्म भोगना चाहता है, वह ब्रह्मानन्द रस है जिसे मनुष्य - व्यक्तित्व के तीन भिन्न स्तरों पर सोम, ब्रह्म तथा परम व्योम कहा गया है । संभवतः ये ही वे तीन नाम हैं जिनको ईम् क्रमशः ग्रहण करता हुआ बताया गया है । यह ईम् वह प्राणोदक है जिसे पुत्र माना गया है, क्योंकि यह उस ईम् का एक रूपान्तर है जिसे वामपक्षी का अर्धस्तरीय 'अपीच्यं' अथवा 'निहितं पदम्' कहा गया है और जिसे उक्त 'रेतस्' माना जा सकता है । पुत्र ईम् के द्वारा पिता ईम् के उक्त नामों को ग्रहण करने का अर्थ है - अहंकार रूप अहि के बन्धन में पडे हुए उदक(आपः ) को उत्तरोत्तर दिव्यता ग्रहण करते हुए आरोहण करना । यही विष्णु का विक्रमण कहलाता है । इसके फलस्वरूप होने वाली जो चेतना के अवरोहण वाली साध है, उसके परिणामस्वरूप 'आपः देवी:' का समावेश करने वाले सिन्धु का अवतरण उस दिव्य कर्म - समुद्र के उद्भव और विकास में सहायक होता है जिसे इन्द्रजन्म, वृत्रवध और दिव्य आपः या सिन्धुओं की मुक्ति कहा जाता है । 'ईम्' नामक प्राणोदक का यही वह स्तर है जो अपनी मातृयुग्म (मातरा) को रेतस् नामक ब्रह्मानन्द तक पहुंचा देता है । इस स्तर तक पहुंचने के लिए ऊर्ध्वगामी ईम्(पुत्र) को जो पिता ईम् के तीन नाम ग्रहण करनेv पडे , उन्हें 'यज्ञियानि नामानि' कहा जाता है, क्योंकि वे ईम् के उत्तरोत्तर दिव्यता - सम्पन्न होने वाले रूपान्तर हैं । ईम् और प्राणोदक वाम ऋग्वेद का सूक्त १.१६४ उस 'वाम' के उल्लेख से प्रारम्भ होता है जिसके दो अन्य भ्राता बताए गए हैं - अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः । तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ।। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वह वाम स्वयं प्राण तत्त्व का बोधक है ( प्राणा वै वामम् - शतपथ ब्राह्मण ७.४.२.३५) । यही प्राण रूप वाम वह पक्षी है जिसके रहस्यमय निहित पद के लिए उदक नाम 'ईम्' का प्रयोग हुआ है ( ऋग्वेद १.१६४.७), तो अन्य उदक नामों( क्षीरं, उदकम्) को उसी वाम के क्रमशः शीर्ष तथा पैर से प्राप्य बताया गया है । इस प्रकार यहां वाम प्राण के जो तीन पद या स्तर संकेतित हैं, उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में संभवतः वाम को तीन भाईयों में से एक माना गया है । इन तीन पदों में से जिस निहित पद को ईम् कहा गया है, उसकी तुलना सोम के ईम् नाम 'अपीच्यं पदं'( ऋग्वेद ९.७१.५) से भी कर सकते हैं । परन्तु इस आधार पर क्या वाम प्राण को सोम माना जा सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में ऐसे अनेक मन्त्रों को रखा जा सकता है जहां इस ईम् नामक पद को इन्दु, सोम अथवा उसी के किसी अन्य नाम के साथ समीकृत किया गया है । उदाहरणार्थ, ऋग्वेद ९.७२.६ में जिस ईम् नामक अंशु को 'गाव: मतयः ' संयत करती हैं, वह सदन( उदक नाम) या ऋतस्य योनिः ( उदक नाम) में संयत होता है और उसका दोहन क्रियाशील कवि और मनीषी लोग ही कर पाते हैं । ऋग्वेद ९.६३.१७ में यही ईम् वह हरि नामक इन्दु है जिसको इन्द्र के लिए 'आयव:' नामक प्राण शुद्ध करते हैं । जब इन्द्र के 'इन्द्रियं परमं' को पृथिवी और द्यौ के अतिरिक्त तीसरे स्तर पर सम्पृक्त ईम् कहा जाता है तो भी उक्त वाम के ही तीन पदों की ओर संकेत प्रतीत होता है ( ऋग्वेद १.१०३.१) । इन प्रमाणों के अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयं सोम भी तत्त्वतः प्राण का ही एक रूप है, इसीलिए ब्राह्मण ग्रन्थ 'प्राण: सोम:'( कौशीतकि ब्राह्मण ९.६, शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.२) की घोषणा करते हैं । - - - - - - ऋत नामक उदक के प्रभाव से सोम वर्धमान होकर चारों कोशों में चारुता(सुन्दरता) ले आता है - -- - । |