CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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The sieve used to purify soma is called Pavitram in vedic literature. The waters of life lying at different levels of consciousness have to be purified. This purification is done at a level where all the multiplicities are converged into one, but these do not lose their identity. This level is called the sieve. Above this level, there is existence of the level of bliss. This is the level where all purified soma gets collected. This is called nectar. First published on internet : 9-4-2008AD( Chaitra shukla triteeyaa, Vikrama samvat 2065) वेद में उदक का प्रतीकवाद - सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ ई. में स्वीकृत शोध प्रबन्ध ) पवित्र आत्मा रूपी इन्द्र के अतिरिक्त स्वरूप से अभिप्राय उसके उस स्वरूप से है जो आनन्दमय कोश में विद्यमान है । इस स्वरूप तक पहुंचने के लिए 'इन्दव:' को अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगति करते हुए प्राणमय और मनोमय कोश के द्वारा विज्ञानमय कोश में पहुंचकर पवित्र होना पडता है, अतः विज्ञानमय कोश ही वह 'पवित्रम्' अथवा ऊर्ध्व पवित्रम् है जिसमें जाकर अन्नमय आदि कोशों से आए हुए प्राणोदक रूपी इन्दव: या सोम बिन्दव: शुद्ध होते हैं । इस प्रकार विज्ञानमय कोश ही वह पद है जिसके प्रसंग से पवित्रम् शब्द को उदक नामों के साथ - साथ पद नामों में भी सम्मिलित किया गया है । दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि स्थoल और सूक्ष्म शरीर का मिश्रित 'सोम' विज्ञानमय कोश की पवित्र(छलनी) में पवन(छनवा) होने के बाद शुद्ध होता है । इसीलिए विज्ञानमय (देव) कोश के प्रेरक को अथर्ववेद में पवमान(पवने वाला या छनने वाला) कहा गया है और ऋग्वेद का नवम मण्डल इसी पवमान सोम के स्तवन से भरा पडा है । हमारा स्थoल शरीर तो इस सोम(आनन्द) की बूंदों को भी तरसा करता है, परन्तु यहां वह सहस्रधारा होकर पवित्र(छलनी) से निकलता है । सारे सोम का मूल तो आनन्दमय कोश ही है । यहीं आकर सोम अन्य कोशों के अस्थायित्व को छोडकर स्थिर हो जाता है और अमृत कहलाता है । परन्तु विचित्र है यह अमृत, जो ऊपर की ओर छनता है और शरीर रूपी वृक्ष का प्रेरक भी है - अहं वृक्षस्य रेरिव: कीर्ति: पृष्ठं गिरेरिव । ऊर्ध्वं पवित्र वाजिनीवस्वमृतमास्मि । द्रविणं सवर्चसं सुमेधाऽमृतोक्षितः । सुमेधा अमृतोऽक्षितः । - वैदिक दर्शन, पृ. २०-२१ इस प्रकार ऊपर की ओर छनने वाला अथवा शुद्ध होने वाला यह ऊर्ध्व - पवित्र इन्दn(सोम) जिस आनन्दमय कोश में पहुंचता है, वहीं हमारी चेतना भी 'समानं योनि:' कही गई है ( ऋग्वेद १०.१७.११) । संयोग से यह 'योनि' भी एक उदक नाम है । यहीं से प्रवाहित होने वाले आपः ( प्राणोदक ) हमको शुद्ध और पवित्र करते हुए सारे आन्तरिक कल्मष को बाहर निकाल सकते हैं ( ऋग्वेद १०.१७.१०) । इसी सोम का जो स्वरूप विज्ञानमय रूपी पवित्र(छलनी) से शुद्ध होकर निकलता है, उसी की आहुति आनन्दमय कोश में स्थित ब्रह्म को प्रदान की जाती है ( ऋग्वेद १०.१७.१२) । आनन्दमय कोश से सर्वथा शुद्ध होकर सोम का जो बिन्दn अवतरित होता है, उसी को बृहस्पति देव राधस् प्रदान करने के लिए मनुष्य व्यक्तित्व में सर्वत्र सिंचित करते हैं ( ऋग्वेद १०.१७.१३) । इसी को पयः नामक उदक कहा जाता है जिसके द्वारा शुद्ध किए जाने के लिए प्रार्थना की जाती है और जिसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर पयस्वती ओषधियां प्रादुर्भूत होती हैं और हमारा वचन(अभिव्यक्ति) भी पयस्वान् माना जाता है ( ऋग्वेद १०.१७.१४) । |