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Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

Single - multiple waters

Polluted waters

Indu

Kabandha

Barhi

Trita

naukaa

nabha

Sindhu

Indra

Vapu

Sukham

Eem

Ahi

Vaama

Satya

Salila

Pavitra

Swah

Udaka

 

 

First published : 18-3-2008 AD( Faalguna shukla dvaadashee, Vikrama samvat 2064

वेद में उदक का प्रतीकवाद

- सुकर्मपाल सिंह तोमर

(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोधप्रबन्ध )

वपु

'वपु:' शब्द सामान्यतः शरीरवाचक माना जाता है, परन्तु निघण्टु में उदकनामों में परिगणित यह शब्द अग्नि मन्त्रों में प्रायः अन्य उदक नामों के साथ प्रयुक्त पाया जाता है उदाहरणार्थ, . .१४१. में यह शब्द सहस्, ईम् और ऋतं के साथ प्रयुक्त हुआ है -

बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्ग: सहसो यतो जनि

यदीमुप ह्वयते साधते मतिर्ऋतस्य धेना अनयन्त सस्रतः ।।

          इसके अनुसार सहस् संज्ञक उदक नाम से देव का जो दर्शनीय भर्ग पैदा होता है, वह वपु के लिए धारण किया जाता है वह 'ईम् ' है, जिसको मति सिद्ध करती है तो 'ऋत' की धाराएं उसको ले जाती हैं दूसरे मन्त्र में उस देव का 'वपु:' त्रिविध बताया गया है - एक रूप में वह नित्य है, दूसरे रूप में सात शिवा माताओं में शयन करता है और तीसरे का नाम दशप्रमति है जिसे कोई योषाएं वृषभ के दोहन के निमित्त उत्पन्न करती हैं ( . .१४१.) इसी सूक्त के तीसरे मन्त्र में उदक नाम 'ईम्' को दो संदर्भों में रखा गया है प्रथम में 'ईम्' को अग्नि के बुध्न से सूरि(ज्ञानी) लो'शवस्' कहे जाने वाले उदक के द्वारा निकालते हैं दूसरे रूप में 'ईम्' जिस प्रदिव की गुहा में मातरिश्वा द्वारा मथा जाता है, उसके लिए 'मधु' शब्द का प्रयोग हुआ है जो कि एक उदक नाम है इसी प्रकार इन्द्र सूक्तों में भी 'वपु' शब्द अनेक उदक नामों के साथ प्रयुक्त हुआ है उदाहरणार्थ, . .१०२. में वह 'शवस्' उदक नाम के साथ प्रयुक्त है, जबकि ऋग्वेद .२३. में वह 'स्व:' के साथ देखा जा सकता है और . .४४. में 'ऋतं', 'नाम' और 'मह:' जैसे उदक पर्यायों के साथ दिखाई पडता है . .६६.१४ में सूर्य को 'दर्शतं वपु:' कहा गया है और . .४७. में एक अनिवर्चनीय वपु: का उल्लेख है जो नदियों के रूप में विचरण करने वाला तथा 'आपः' के रूप में स्थिर रहने वाला कहा जा सकता है इसीलिए बुद्धियां कर्मों को विविध रूप में फैलाती हैं और ये ही माताएं हैं जो कर्म रूप वस्त्र बुनती हैं ( . .१४१.) एक सूर्य सूक्त ( ..६६.४४) में सूर्य को ही त्यद्, दर्शतं वपु: कहा गया है . .८८. में ' स्व:' के साथ जिस 'अन्ध: वपु:' को दर्शनार्थ लाने के लिए वरुण से प्रार्थना की गई है, वह भी अन्धकार में छिपा सूर्य ही है

          यह सब कहने का अभिप्राय है कि अग्नि, इन्द्र और सूर्य के संदर्भ में प्रयुक्त वपु: शब्द निस्सन्देह वही है जिसे एक अन्य उदक नाम 'तेजस्' के द्वारा जाना जाता है वह तेजोमय स्वरूप ऊपर जिन नदियों और आपः के रूप में दिखाई पडा है, वे भी तेजोमय प्राण की धाराएं प्रतीत होती हैं ब्राह्मण ग्रन्थों में 'प्राणाः वा आपः' ( ताण्ड्य ब्राह्मण .., तैत्तिरीय ब्राह्मण ..., जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण ...) कहकर इसी ओर बार - बार संकेत किया गया है निघण्टु में 'वपु:' शब्द रूप नामों में भी परिगणित है और रूप का भी सम्बन्ध तेज से है, अतः 'वपुष: वपुष्टरं'( .१०.३२.) की बात करके इन्द्र से 'तत् सधस्थ चारु' को दीप्त करने की प्रार्थना की जाती है ( . १०.३२.)और इसी प्रसंग में, जिस एक पद की ओर एक (इन्द्र) को रुद्रों के साथ आने की बात( . १०.३२.) की जाती है, वह आपः के भीतर छिपा हुआ है ( . १०.३२.) इसके विषय में अग्नि से पूछा जाता है तो साधक को इन्द्र के पास भेज दिया जाता है अतः साधक कहता है -

अक्षेत्रवित् क्षेत्रविदं ह्यप्राट् प्रैति क्षेत्रविदानुशिष्ट:

एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्रतिं विन्दत्यञ्जसीनाम् ।। - .१०.३२.

अर्थात् क्षेत्र को जानने वाले ने क्षेत्रवेत्ता से पूछा और क्षेत्रवेत्ता से उपदेश पाकर वह प्रगति के पथ पर चल रहा है उपदेश की भद्रता इसी बात में है कि वह उषाओं के स्रोत को पा लेता है अगले मन्त्र में इसी स्रोत को माता का ऊधस् कहा गया है जिसको ज्योvतिर्मण्डित जीवात्मा पीता है और उन ज्ञान ज्योvतियों को जानता है जिनको 'इमा अहा:' कहा गया है यह सब इसलिए हुआ कि आज ही नामक ब्रह्मज्योvति सक्रिय हो गई, जिसके परिणामस्वरूप साधक ने 'ईम्' नामक उदक को प्राप्त कर लिया, जो युवा है इस प्रकार वह क्रोधरहित 'वसु: सुमना:' हो गया -

अद्येदु प्राणीदममन्निमाहा ऽपीवृत अधयन्मातुरूध: मेनमाप जरिमा युवानमहेळन् वसु: सुमना बभूव ।। - . १०.३२.

          इस विवरण को देने का अभिप्राय यह है कि उदक नामों और रूप नामों में परिगणित 'वपु:' शब्द मूलतः किसी आध्यात्मिक तेज का प्रतीक है जिसका स्रोत ब्रह्म ज्योvतिरूप अग्नि से माना जाना चाहिए उसी को आनन्द रूप में प्राप्त करके साधक उसे पीने वाला कहा जा सकता है और प्रकाश रूप में उसी को ज्ञान धाराओं रूपी उषाओं का स्रोत माना जा सकता है इसी को उदक नामों में 'ईम्' रूप में स्वीकार किया गया है इसलिए कहा जाता है कि अग्नि दर्शनीय वपु: को विविध रूपों में प्रकाशित करता है ( . १०.१४०.) यह वह दर्शनीय वपु अथवा रूपवान वसु है जिसको सरस्वती मन और नासत्यों द्वारा बुना करती है ( माध्यन्दिन वाजसनेयि संहिता १९.८३) नासत्य अश्विनौ हैं जो देवभिषक् और रुद्रवर्तनी कहे जाते हैं और जिनके साथ एक अन्य मन्त्र ( वाजसनेयि संहिता १९.८२) में सरस्वती आन्तरिक रूप को पूजने वाली कही जाती है ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राणापानौ को अश्विनौ कहा गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण .३३४) अतः मन के सहित अश्विनौ द्वारा जिस 'वपु' को बुनने की बात यहां कही गई है, वह प्राणायाम तथा ध्यानयोग जन्य आध्यात्मिक यज्ञ सविता, सरस्वती और वरुण मन रूपी शीर्ष और र्णासूत्र से बुनते हुए कहे जाते हैं इसी को रसं, शुक्रं, पयः, सोम, सत्यं, अमृतं, मधु और इदं जैसे उदक नाम भी दिए गए हैं

 

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