CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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First published on internet : 11-4-2008AD( Chaitra shukla shashthee, Vikrama samvat 2065) वेद में उदक का प्रतीकवाद - सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ ई. में स्वीकृत शोधप्रबन्ध ) स्व और स्व: जो स्व: अतीन्द्रिय और अतिमानसिक ज्योति के रूप में हमारे भीतर छिपा रहता है, वह समाधि के उपरान्त व्युत्थानावस्था में साधक को प्रत्यक्ष हो जाता है । अङ्गिरसों द्वारा 'स्व:' की सुप्रसिद्ध खोज वस्तुतः इस निहित ज्योति के प्रत्यक्षीकरण की क्रिया है । यह 'स्व:' स्व के लिए सुहृदयतम कहा जाता है (शतपथ ब्राह्मण १.९.३.१४) । यह स्व: अग्नि की एक दिव्य ऊर्जा है (तैत्तिरीय आरण्यक ४.१८.१, शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.१२) । यह ऊर्जा रसस्वरूपा है ( शतपथ ब्राह्मण ३.९.४.१८) । इसी स्व: को धारण करके साधक की चेतना स्वधा संज्ञक उदकनाम को ग्रहण करती है, अतः स्वधा को भी रस के रूप में कल्पित किया गया है ( शतपथ ब्राह्मण ५.४.३.७) । यह स्व: देवों के रूप में भी कल्पित है, अतः 'देवा: वै स्व:' कहा जाता है ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.६९) । यही स्व: मनुष्य में निरन्तर विकसित होते 'स्वधिति' नामक वज्र बन जाता है ( मैत्रायणी संहिता ३.९.६) जो सभी आसुरी शक्तियों को नष्ट करके मानव व्यक्तित्व को स्वर्गोपम बना देता है, क्योंकि स्वर्गलोक वस्तुतः स्व: ही है ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.६९) । ऐसी स्थिति में शरीर रूपी असुर 'स्वर्विद्' (स्व: का ज्ञाता ) हो जाता है जिसको दिव्य और पितृ शक्तियां 'मानुष' नामक तृतीय कर्म से युक्त कर देती हैं । इस प्रकार वे अपने पैतृक दिव्य बल को तथा अपनी निजी प्रजा को अवर प्राणों में स्थापित करके अपने तन्तु को फैला देती हैं ( ऋग्वेद १०.५६.६) । ऋग्वेद १०.२७.२४ में इन्द्र(आत्मा) से प्रार्थना की गई है कि वह उस स्व: (उदक नाम) नामक ज्योति को अभिव्यक्त करे तथा प्राणोदक को छिपा दे - सा ते जीवातुरुत तस्य विद्धि सा स्मैतादृगप गूहः समर्ये । आवि: स्व: कृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते ।। यही स्व: वह सु है जिसके खनन में प्रयत्नशील होने वाले प्राणोदक को 'सुखं' कहा जा सकता है और इसी 'सुख' नामक रथ पर विराजमान आत्मा को 'सुखरथ' कहा जाता है । संदर्भाः -- स प्रेक्षते । अगन्म स्वरिति देवा वै स्वरगन्म देवानित्येवैतदाह सं ज्योतिषाभूमेति सं देवैरभूमेत्येवैतदाह – श.ब्रा. १.९.३.[१४] औदुम्बरं भवति । तेन स्वोऽभिषिञ्चत्यन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्ग्वै स्वं यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति नैव तावदशनायति तेनोर्क्स्वं तस्मादौदुम्बरेण स्वोऽभिषिञ्चति - श.ब्रा. ५.३.५.[१२] ऊर्जं दधाथामिति रसं दधाथामित्येवैतदाह पाप्माहतो न सोम इति तदस्य सर्वं पाप्मानं हन्ति - श.ब्रा. ३.९.४.[१८] अव्यथायै त्वा स्वधायै त्वेत्यनार्त्यै त्वेत्येवैतदाह यदाहाव्यथायै त्वेति स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह - श.ब्रा. ५.४.३.७ वज्रो वै स्वरु , र्वज्रः स्वधिति , र्यत् स्वधितिनानक्ति वज्रेणैवैनं स्तृणुते - मैत्रायणी संहिता ३.९.६ द्विधा सूनवोऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्मणा । स्वां प्रजां पितरः पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम् ॥ ऋग्वेद १०.५६.६) ॥ |