CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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The normal meaning of vaama in Sanskrit is left, opposite, reverse etc.Vaama happens to be classified in vedic glossary under the synonyms for laudable /ruler. There is a famous saama chant 'kayaa nashchitra aa bhuvat' etc which is called Vaamadevyam chant. Soma in itself is not vaamam. It becomes vaamam/laudable only when it unites with life forces at mortal level(ritam). When it does so, it starts it's journey in upward direction, which is called Vaamana. Ultimately, it takes the form of lord Vishnu who became Viraat from Vaamana. First published on internet : 3-4-2008 AD( Chaitra krishna dvaadashee, Vikrama samvat 2064) वेद में उदक का प्रतीकवाद - सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोधप्रबन्ध ) वाम ऋत नामक प्राणोदक के योग से ही प्राण - सोम को 'वाम' कहा जाता है, परन्तु सोम मात्र वाम नहीं है, ऋत - रहित सोम कदापि वाम नहीं । वाम शब्द को निघण्टु में प्रशस्य नामों में परिगणित किया गया है । इसकी पुष्टि ताण्ड्य महाब्राह्मण भी यह कहकर करता है कि जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसी को वाम कहते हैं ( तां.ब्रा. १३.३.१९) । वास्तव में सोम प्राण का उत्कृष्ट रूप ही वामदेव है क्योंकि उसी को सब प्राण देव अपने में श्रेष्ठ मानते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.२.१-३) । यही वामदेव्यं नामक साम की स्थिति है, जिसको शिवं, शान्तं, सुष्वाणं कहकर( जैमिनीय ब्राह्मण २.१९४) उसका समीकरण स्वयं आत्मा (जैमिनीय ब्राह्मण २.४११) अथवा यज्ञमान लोकोऽमृतलोक: स्वर्गोलोक: के साथ किया जाता है ( ऐतरेय आरण्यक ३.४६) । यही 'वामदेव्यं' नामक स्थिति कौशीतकि ब्राह्मण २७.२, २९.३-४ के अनुसार शान्तिरूप भेषज कही जाती है और सभी सामों का सत् भी उसी को माना जाता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण १५.१२.२) । यह जीवात्मा रूप प्राण नानात्व प्राप्त प्राणों को संगृहीत कर लेता है तो वह उन सब प्राणों के साथ ऊर्ध्वदिशा में उत्क्रमण करने वाला वामन(जैमिनीय ब्राह्मण ३.५१८) कहा जाता है और वही अन्ततोगत्वा विष्णु का रूप धारण कर लेता है (शतपथ ब्राह्मण १.२.५.५) । इसका अभिप्राय है कि प्राण रूप सोम पूर्वोक्त ऋत के उत्तरोत्तर सम्पर्क से अपने वामन रूप को विकसित करके तीनों लोकों को अपने उत्क्रमणों में समाहित करने वाला विराट् विष्णु बन जाता है । प्राण की इसी स्थिति का समीकरण स्व: ज्योvति से किया जाता है, जो स्वयं एक उदकनाम है और इसे ही वाम, प्रकाश तथा उरु अन्तरिक्ष का भी नाम दिया जाता है और साथ ही यह भी बताया जाता है कि यह सोम का वह 'हवि' नामक स्वरूप है जो वृत्रवध के बाद उभरता है और जिसके द्वारा मनुष्य व्यक्तित्व में अग्नि और वरुण यजन करने लगते हैं - इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् । हनाव वृत्रं निरेहि सोम हविष्ट~वा सन्तं हविषा यजाम ।। - ऋ. १०.१२४.६ इसी वाम को अपना उपास्यदेव बनाने वाला साधक वामदेव कहलाता है जिसकी बुद्धियों(धीनाम्) का रक्षक परमेश्वर रूप इन्द्र होता है ( ऋग्वेद ४.१६.१८) । इसी इन्द्र के नेतृत्व में सुनीति(सुमार्ग) और वामनीति( वाम की ओर गमन ) उभरती है जिसके द्वारा हम साधक लोग भवसागर को आत्यन्तिक रूप से पार करने में समर्थ होते हैं । इस विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप हम भूरिवाम रूप निवास के वाम के भागीदार होते हैं । यह कार्य जिस धी के द्वारा होता है, उसी से युक्त होकर साधक प्रार्थना करता है कि हे सविता देव, हमारे लिए वाम को आज उत्पन्न करो, कल उत्पन्न करो और प्रतिदिन उत्पन्न करो जिससे हम उस वाम के भागीदार बन सकें ( ऋग्वेद ६.७१.६) । अतः यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि वाम के इस अन्तिम स्वरूप को प्राप्त करने की प्रक्रिया में अनेक प्रकार के वामों की प्राप्ति होती है । इसी दृष्टि से वैदिक ऋषि विभिन्न देवों से प्रार्थना करता हुआ बार - बार कहता है कि हम वामों का ध्यान करें -- - - वामानि धीमहि( ऋग्वेद ५.८२.६, ८.२२.१८, ८.१०३.५) । यही वाम के आत्यन्तिक रूप को प्राप्त करने की उत्तरोत्तर प्रगतिशील वाम नीति है जो सुकर्म करने वाले अपनाते हैं और यही इन्द्र के लिए होने वाला वह सोमाभिषवण माना जाता है जिससे दिव्य धाम के निमित्त विभिन्न प्रकार के वाम(वामं वामं) तथा वसु( वसु वसु ) प्राप्त होते हैं । वाम, क्षत्र और ओज परमेश्वर इन्द्र और उसकी उषा नामक ज्योvति जो विविध प्रकार के वाम प्रदान करते हैं, उन्हीं को अर्यमा, पूषा, भग आदि विविध देव साधक को प्रदान करते हैं (ऋग्वेद ४.३०.२४) । यह 'वाम' ही वह 'क्षत्र' अथवा 'ओज' है जिसके प्रादुर्भाव को इन्द्र जन्म माना जाता है और जो द्वेष रखने वाले जन(वृत्र) को हटाता है तथा देवों के लिए 'उरु ॐ लोक' की सृष्टि करता है ( ऋग्वेद १०.१८०.३) । इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि निघण्टु के नामों में उक्त क्षत्र और ओज भी परिगणित हैं जिनका समीकरण यहां वाम और इन्द्र के साथ किया गया है । परमेश्वर - प्रदत्त स्थविर, महान और वर्षणशील क्षत्र का जो वर्धन करते हैं, उनके वाम और मनीषा की बराबरी कोई नहीं कर सकता तथा वे अपने दिव्य कार्य अपस् द्वारा सोमपा होते हैं । यहां जिस अपस् द्वारा सोमपा होने की बात कही गई है, वह अपस् भी उदक नामों में परिगणित है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त क्षत्र की रक्षा वह अपस् है जिसके द्वारा अद्वितीय वाम और अद्वितीय मनीषा की प्राप्ति सोमपा बनाने में सहायक होती है । वामदेव्यम् साम कया नश्चिद्वा आ भुवदूती सदावृध: सखा । कया शचिष्ठया वृता ।। कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धस: । दृढा चिदारुजे वसु ।। अभी षु ण: सखीनामविता जरितृणाम् । शतं भवास्यूतये ।।
१ ३ र ४ २ ४र ५ १ र २१र २ १ २ र २ १ २ हुम् । का५ यानश्चा३ इत्रा३ आभुवात् ।। ओमूतीसदावृध:सखाऔ३ हो हाइ ।। कया२३ शचाइ ।। ३ र २ १ - १ २ ३ र ४ २ ४ ५ १ ष्ठयौहो३ हुम्मा २ वा २र्त्तो ३५ ।। हाइ ।। (१) का५ स्त्वासत्यो३ मा ३दानाम् ।। ओम्मां २ र १ २ १ २ र २ १ २ ३ र २ १ - १ २ हिष्ठोमात्सादन्धसाऔ३ हो हाइ ।। दृढा २३ चिदा ।। रूजौहो३ हुम्मा२ वा२ सो३५ ।। हाइ ।। (२) ३ र ४ २ ४ ५ १ २र१ २र१ र २ १ २ ३ र २ आ५ भीषुणा३: सा३ खीनाम् ।। ओमाविताजराइतृणामौ २३ हो हाइ ।। शता२३ म्भवा ।। सियौहो३ १ - १ २ हुम्मा २ ता २ यो ३५ ।। हाइ ।। (३) १-१२
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