CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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The Symbolism of Water in
Vedas -
Sukarma Pal Singh Tomar 1995 (A thesis
submitted to Hymn 10.5 of Atharva veda is peculiar in the
sense that this hymn is divided into several sections with separate seers and
deities and each section seems to be disconnected with other sections. But a
closer look reveals that the sections of this hymn are well knit with each
other. It often happens with vedic hymns that the context of the contents is not
understood. It is fortunate that the context of this hymn can be understood from
the deity of the first section. This context is of lunatic waters. At the
highest level, waters or life forces remain totally pure. But these remain
blocked due to the power of demon Vritra. Moreover, as these waters or life
sustaining forces seep into lower levels of consciousness, these get impure.
Initial mantras of this hymn indicate what types of penances need to be done to
keep the lunatic waters pure. The first penance or yoga is of Brahm type. The
next is of warrior type, the yoga which protects us from evil forces. Third is
of Indra type, where all streams of consciousness of our senses, our mental
faculties are converged into one and given a path to ascend upwards. Next comes
the yoga of soma. This yoga is peculiar in the sense that all the 5 forms of
lunatic waters are converged into one with this yoga. Yoga of soma and yoga of
Indra are interconnected. As one succeed in Indra yoga, soma descends into lower
levels which in turn strengthens Indra yoga. That is why lord Indra is often
depicted as proceeding for Vritra killing after drinking soma. There are several
other forms of yoga which have been enumerated in this hymn.
Pure waters have been named in this hymn and at other places as aapah.
There is an other form of this word – apah. This form is used for those waters
which are used up in actions of daily life. That is why this word appears under
the category of action in the classical vedic glossary. The mantras of this hymn
desire that this part of waters become connected with yaju, the highest form of
action, action without increase in entropy. First published on internet : 4-3-2008 AD( Faalguna krishna dwaadashee, Vikrama samvat 2064) वेद में उदक का प्रतीकवाद (शोध प्रबन्ध ) - डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, १९९५)
अथर्ववेद १०.५ मन्त्र १-२४ : ऋषि - सिन्धुद्वीपः ; देवता - आपः, चन्द्रमा: । मन्त्र २५-३५ : ऋषि - कौशिक:, देवता - विष्णुक्रम: मन्त्र ३६-४१ : ऋषि - ब्रह्मा, देवता - मन्त्रोक्ता: मन्त्र ४२-५० : ऋषि - विहव्य:, देवता - ? आपश्चन्द्रा: अहंकार रूपी अहि या वृत्र जिन आपः को अवरुद्ध करता है, वे हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका: कहे गये हैं ( ऋग्वेद ७.७७.२) । वे वस्तुतः हमारे व्यक्तित्व की हिरण्ययकोश नामक सबसे बडी गहराई में विद्यमान प्राण हैं । इन्हीं आपः को देवी: आपः भी कहा जाता है जिनसे शान्ति की कामना की जाती है । ये ही आपः जब आनन्दमय आदि पंचकोशों में अवतीर्ण होते हैं तो आपश्चन्द्रा: कहे जाते हैं । इन आपश्चन्द्रा: का वर्णन अथर्ववेदीय शौनक संहिता के पचास मन्त्रों वाले सूक्त १०.५ में प्राप्त होता है । इन्हीं आपश्चन्द्रा: को वह क नामक प्रजापति उत्पन्न करता है जिसे कम् रूप में एक सुखबोधक नाम स्वीकार किया गया है ( शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः ।। - अथर्व १०.९.४) । ये शुद्ध, दिव्य आपश्चन्द्रा: आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में क्रमशः ओज:, सह:, बलम्, वीर्यम् तथा नृम्णम् नाम से जाने जाते हैं, जैसा कि अथर्ववेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय ब्रह्मयोगैर्वो युनज्मि ।। - अथर्व १०.५.१ इस मन्त्र में ओज आदि ५ रूपों का उपयोग ब्रह्मयोग हेतु किया गया है । इसी सूक्त के द्वितीय मन्त्र में जिष्णुयोग के लिए क्षत्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्रा: के उक्त पांचों रूपों को संयुक्त करने की बात कही गई है । क्षत्र हिरण्ययकोश से अवतरण करने वाली वह प्राण शक्ति है जो अभ्व, विष, अहि और शम्बर जैसे शत्रुओं से मिलने वाले क्षत से त्राण करने में सक्षम है । - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय क्षत्र योगैर्वो युनज्मि ।। - अथर्व १०.५.२ अथर्ववेदीय सूक्त के तृतीय मन्त्र में इन्द्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्रा: के उक्त पांचों रूपों को केन्द्रित करने का उल्लेख है । इन्द्रयोग में सभी इन्द्रियों की चेतनाधाराओं को एक सूत्र में बांधने का ऊर्ध्वमुखी प्रयास होता है, जिसके फलस्वरूप फैली हुई मानसिक वृत्तियां सिमट कर मन को ऊर्ध्वमुखी बना देती हैं । ऐसे ही सभी प्रयासों को इन्द्रयोग कहा जाता है - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगायेन्द्रयोगैर्वो युनज्मि ।। - अथर्व १०.५.३ चतुर्थ मन्त्र में आपश्चन्द्रा: के पांचों रूपों को एकत्र करने के लिए सोमयोगों के उपयोग की बात कही गई है, क्योंकि सोम योग के बिना इन्द्रयोग आगे नहीं बढ सकता । इन्द्रयोगों की सफलता जिस अनुपात में होती है, उसी अनुपात में आनन्दमय कोश से आनन्द सोम का अवरोहण होने लगता है । इसी का नाम सोमयोग है । इसी दृष्टि से वृत्र युद्ध में इन्द्र को सोमपान करके ही अपना पौरुष दिखलाने का वर्णन प्रायः मिलता है - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं१ स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय सोमयोगैर्वो युनज्मि ।। - अथर्ववेद १०.५.४ उक्त चारों योगों की शृङ्खलाओं से जिष्णुयोग की सिद्धि के लिए जो प्रयास किए जाते हैं, उनकी वास्तविक सफलता अप्सुयोगों द्वारा ही संभव होती है । अप्सु ( अप् - सु) योग में भी, अप् शब्द के साथ सुब्रह्म का सूचक 'सु' प्रतीक विद्यमान है । अप: शब्द निघण्टु के कर्मनामों में भी परिगणित है । अतः अप्सुयोग का अभिप्राय सुब्रह्म की सभी शक्तियों का मनुष्य के कर्म अथवा आचरण के स्तर पर एकत्रित होना है । इसी योग के फलस्वरूप मनुष्य का कर्म श्रेष्ठतम होकर यज्ञ बनने लगता है - यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । अतः अथर्ववेदीय सूक्त के पञ्चम मन्त्र में अप्सुयोगों की उपादेयता इस प्रकार बताई गई है - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगायाप्सुयोगैर्वो युनज्मि ।। - अथर्व १०.५.५ इन्हीं योगों के फलस्वरूप, मनुष्य व्यक्तित्व के सभी पञ्च महाभूत साधक की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं और आपश्चन्द्रा: के सभी रूप भी केन्द्रीभूत हो जाते हैं - इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय विश्वानि मा भूतान्युपतिष्ठन्तु युक्ता म आप स्थ ।। - अथर्व १०.५.६ इस मन्त्र में आपः के युक्त होने का एक विशेष अभिप्राय है । जब तक जिष्णुयोग के लिए विविध प्रयास प्रारम्भ नहीं हुए थे, तब तक अहंकार रूप अहि ने दिव्य आपश्चन्द्रा: का मार्ग अवरुद्ध कर रखा था और अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के आपः को अपने आधीन कर रखा था । इसी दृष्टि से कभी - कभी आपः को अहिगोपा: भी कहा जाता है । अब जिष्णु योग के सफल होने पर अहिगोपा आपः भी मुक्त होकर आपश्चन्द्रा: के साथ समरस हो गए । अतः मनुष्य व्यक्तित्व से सभी स्तरों के प्राणरूप आपः दिव्य चेतन तत्त्व बन गए । ये सभी आपः दिव्य होने के कारण प्रस्तुत अथर्ववेदीय सूक्त में विभिन्न देवों और पितरों के अंगभूत माने गए हैं । अतः 'आपः देवी:' को अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर और सविता आदि का भाग बताते हुए उनसे प्रार्थना की गई है कि हमारे भीतर वर्चस् को स्थापित करे, जो आपः का शुक्र रूप है - अग्नेर्भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। इन्द्रस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। सोमस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। वरुणस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। मित्रावरुणयोर्भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। यमस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। पितqणां भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। देवस्य सवितुर्भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त । प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ।। - अथर्व १०.५.७-१४ आपः का जो भाग कर्मों के अन्तर्गत ( अप्सु अन्त:) आ जाता है, उसको 'यजुष्यो देवयजनः' कहा जाता है और वह चरमावस्था तक पहुंचकर हमारे उस अहंकार रूपी अहि: को समाप्त कर देता है जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं तथा हम उसका वध इस ब्रह्म कर्म द्वारा कर दें - यो व आपऽपां भागो३प्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। यो व आपोऽपामूर्मिरप्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। यो व आपोऽपां वत्सो३अप्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। यो व आपोऽपां वृषभो३प्सव१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। यो व आपोऽपां हिरण्यगर्भो३प्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। यो व आपोऽपामश्मा पृश्निर्दिव्यो३प्सव१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। ये व आपोऽपामग्नयोऽप्स्व१न्तर्यजुष्या देवयजना: । इदं तानति सृजामि तान् माभ्यवनिक्षि । तैस्तमभ्यतिसृजामो यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: । तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ।। - अथर्व १०.५.१६-२१ |