CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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Symbolism of
waters in Veda -
Sukarma Pal Singh Tomar -
(A thesis accepted in
1995 AD by Chaudhary Charan Singh University, Meerut) There is a famous
hymn in Rigveda 10.129, called Naasadeeya Suukta, which talks of the state of
truth or untruth at the beginning of manifestation. It says that there was
neither truth nor untruth. What this truth or untruth can be be, is the subject
matter of this note. The terms used in the hymn are different from truth – the
actual terms are sat and asat. When these two reach the highest stage of Aditi,
the undivided – one, then these two assume the form of a primordial unmanifest
fire. This fire manifests in many forms, and is the source of sat and asat. This
is the state at the beginning of penances, where truth appears first in the form
of a duality of sat and asat. It can also be said that at the beginning of
penances, asat is dominant. After that, when sat gets developed, one is able to
see sun hidden in his ocean of consciousness. After that appear divine powers
which are called 8 suns. This fire or sun appears due to Ritam.
This is of two types. One state is where all the multiplicity sinks into
oneness. The other state is where this multiplicity manifests in the form of
emotion, action etc. One can talk of only upto the stage where multiplicity has
not yet manifested. What is beyond that, it is difficult to say exactly.
Published on internet : 4-4-2008(Chaitra krishna Trayodashee, Vikrama samvat 2064) वेद में उदक का प्रतीकवाद - सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोधप्रबन्ध ) सत्य सत्यं शब्द सत् और असत् के द्वन्द्व से अतीत प्रतीत होता है । इसीलिए परस्पर विरोधी सत् और असत्, दोनों के सत्य को 'ऋजीय' कहा गया है जिसकी सोम रक्षा करता है, जबकि वह असत् का वध कर देता है - सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसो पस्पृधाते । तयोर्यत्~ सत्यं यतरदृजीयस्तदित् सोमोऽवति हन्त्यासत् ।। - ऋ. ७.१०४.१२ परस्पर स्पर्द्धा करने वाले सत् और असत् परम व्योम में अखण्डता की प्रतीक अदिति की गोद में दक्ष नामक बल की उत्पत्ति के समय पहुंचते हैं तो वे दोनों अग्नि का रूप धारण कर लेते हैं - असच्च सच्च परमे व्योमन् दक्षस्य जन्मन्नदिते उपस्थे । अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनु: ।। - ऋ. १०.५.७ परम व्योम के इस अव्यक्त अग्नि को एक धारक समुद्र कहा गया है जो कि व्यक्त रूप में भूरिजन्मा होकर प्रकट होता है और प्रकाश - अन्धकार अथवा सत् - असत् का ऊधस् अथवा स्रोत कहलाता है ( ऋग्वेद १०.५.१) । प्रस्तुत मन्त्र में अग्नि को 'ऋतस्य प्रथमजा' कहा गया है, जो 'पूर्व आयु' में वृषभ तथा धेनु की जोडी के रूप में स्थित बताया जाता है । यहां पूर्व आयु से अभिप्राय साधना के प्रारम्भिक काल से प्रतीत होता है, जब सत्य सदसद के द्वन्द्व रूप में प्रकट होता है । यही बात अन्यत्र एक दूसरे ढंग से कही गई है । वहां पूर्व आयु के स्थान पर पूर्व्य युग का प्रयोग हुआ है । अथवा उसे प्रथम युग कहा गया है, जबकि असत् से सत् की उत्पत्ति होती है ( ऋग्वेद १०.७२.२-३) । दूसरे शब्दों में, साधक जब अपने भीतर दिव्य शक्तियों को प्रादुर्भूत करने के लिए साधना करता है तो प्रथम तो असत् की प्रधानता होती है जो साधना के फलस्वरूप सत् को जन्म देती है और इस सत् के विकास के फलस्वरूप ही यति लोग अपने भीतर चेतना - समुद्र में छिपे हुए सूर्य का साक्षात्कार करते हैं ( ऋग्वेद १०.७२.७) । तत्पश्चात् ही वे दिव्य शक्तियां प्रकट होती हैं जिनको आठ आदित्य कहा जाता है ( ऋग्वेद १०.७२.८) । यही सूर्य पूर्वोक्त अग्नि है जिसका भूरिजन्मा रूप अष्ट आदित्यों से तुलनीय है । विश्वं और सर्वम् उक्त अग्नि अथवा सूर्य का उद्भव ऋत के परिणामस्वरूप होता है तथा इसको 'प्रथमजा ऋतस्य' कहा गया है । वह साधना के प्रारम्भ में ( पूर्व्य आयुनि) द्विविध होकर वृषभ और धेनु के रूप में कल्पित किया गया है ( ऋग्वेद १०.५.७) । ये दोनों ही अपने संकोचन के फलस्वरूप उस गुह्य सत् का रूप धारण कर लेते हैं जिसमें हमारे आन्तरिक विश्व की सम्पूर्ण विविधता 'एकनीड' हो जाती है, जबकि वही इस विविधता को प्राप्त होकर उस 'सर्वरूप' को धारण कर लेता है जो इच्छाओं, क्रियाओं, भावनाओं आदि की अनेकता में ओतप्रोत हो जाता है ( माध्यन्दिन वाजसनेयि संहिता ३२.८) । यह गुहा में छिपा हुआ 'सत्' ही वह 'अमृत' है जिसमें निहित तीन पदों को पूर्वोक्त सत्यं, सत् और असत् कहा जा सकता है । इसी ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध नासदीय सूक्त में कहा गया है कि वहां न असत् था, न सत् और न उन दोनों से परे रहने वाला 'रज: व्योम' था ( ऋग्वेद १०.१२९.१) । इस 'रज: व्योम' से सम्भवतः पूर्वोक्त अग्नि अथवा सूर्य कहा जाने वाला परम सत्य ही अभिप्रेत है । इसी को अगले मन्त्र में 'तदेकं' कहा गया है । सूक्त के तीसरे मन्त्र में इसी 'एकं' की उत्पत्ति स्पष्टतः तप की महिमा से बताई गई है और तप से पूर्व एक ऐसे घोर अन्धकार की कल्पना की गई है जिसमें 'इदं सर्वं' एक 'अव्याकृतं सलिलं' के रूप में कल्पित किया गया है । उस 'एकं सत्' की उत्पत्ति का मूल कारण वह अतिमानसिक काम है जिसे 'मनसो रेतः' तथा असत् में सत् का बन्धु कहा गया है और जिसे कवि लोग अपनी मनीषा के द्वारा हृदय में प्राप्त करते हैं ( ऋग्वेद १०.१२९.४) । यही 'एकं सत्'(अग्नि - सूर्य) वह रश्मि है जो चेतना की विविध धाराओं के रूप में ऊपर नीचे सर्वत्र अनेक किरणों के रूप में फैल जाती है और इसी के अनेक रूप ही उस 'अग्नि - सूर्य' के रेतोधा महिमान: कहे गए हैं जिनके कारण अधोगामी और ऊर्ध्वगामी शक्ति सक्रिय होती है ( ऋग्वेद १०.१२९.५) । इन 'महिमान:' की तुलना पुरुष सूक्त के उन 'महिमान:' से की जा सकती है जो 'साध्या:' हुए पूर्वे देवा: के साथ 'नाक' में स्थित कहे जाते हैं । ये ही वे देव अथवा आदित्य हैं जो 'एकं सत्' से नानारूपात्मक चेतना - सृष्टि को जन्म देते हैं । परन्तु यह विविधतामयी सृष्टि आई कहां से? कौन इसको बताए ? कौन जानता है इसको? क्योंकि जिन देवों से ये विविधता उत्पन्न होती है, वे भी तो इस सृष्टि के मूल कारण से नीचे (अर्वाक्) की अवस्था में ही होते हैं - - - उस एकं सत् में तो उनका पता भी नहीं होता है । अतः ऋषि कहता है - - 'क वेद एता आबभूव ' अर्थात् जहां से यह नानारूपात्मक सृष्टि आती है, उसके मूल परम सत् को कौन जानता है( ऋग्वेद १०.१२९.६) ? जिस तत्त्व से इसका प्रादुर्भाव हुआ, वह इसको धारण करता है या नहीं करता है, इसको भी शायद इसका वह अध्यक्ष जानता हो जो परम व्योम में बैठा है अथवा हो सकता है कि वह भी न जानता हो ( ऋग्वेद १०.१२९. ७) । सत्य और त्रिदेव: यहां परम व्योम में स्थित जिस देव को अध्यक्ष कहा गया है, वही अन्यत्र( ऋग्वेद १०.५.१, ७) वस्तुतः पूर्वोक्त 'एक समुद्र' कहलाने वाला अग्नि है । इसी को 'समान नीड ' तथा 'ऋतस्य पद' ( ऋग्वेद १०.५.२) भी कहा गया है जिससे अनेक ऋत् प्रवर्तक तत्त्व प्रादुर्भूत होते हैं ( ऋग्वेद १०.५.४) । इस एकीभूत अग्नि की तुलना उस जातवेदस् अग्नि से की जा सकती है जिसमें स्थित इन्द्र सोम को जठरस्थ किए हुए बताया गया है - अयं सोऽग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्र: सुतं दधे जठरे वावशानः । सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान् त्स्न~ त्स्तूयसे जातवेद: ।। - ऋ. ३.२२.१ यही अमृत जातवेदस् है जो सभी अन्धकारों से परे दृश्यमान है ( ऋग्वेद ८.७४.५) और जिसको 'वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमग्निं' कहा जाता है ( ऋग्वेद ८.७४.५) । इस अग्नि को ज्येष्ठ और वृत्रहन्तम कहने का उद्देश्य यह है कि इसके अन्तर्गत जो इन्द्र और इन्दु बताए गए हैं, वे भी अग्नि के समान न केवल वृत्रघ्न हैं, अपितु उसी के समान सत्य भी कहे गए हैं - स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे महामुरुं सैनं सश्चद्~ देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दु: ।। - ऋ. २.२२.१ अधत्तान्यं जठरे प्रेमरिच्यत सैनं सश्चद् देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दु: ।। - ऋ. २.२२.२ दाता राध: स्तुवते काम्यं वसु सैनं सश्चद्~ देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दु: ।। - ऋ. २.२२.३ अमृत जातवेदस् कहलाने वाला यह अग्नि अपने भीतर ऋत को भी समाहित किए हुए है । अतएव इसको 'ऋतस्य पदं' भी कहा गया है । यही अग्नि सत्यं और ऋतं के रूप में द्विविध होकर तब गतिशील होता है जब साधक 'अभीद्ध तप' करने में समर्थ होता है - ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत । ततः रात्रिरजायत ततः समुद्रो अर्णव: ।। - ऋग्वेद १०.१९०.१ |