CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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Symbolism of waters in Veda -Sukarma
Pal Singh Tomar (Thesis
accepted by Chaudhary Charan Singh University, Meerut, 1995) Ahi happens to be classified in vedic glossary under the synonyms for
water, and also under the synonyms for stages/pada. The qualities of Ahi/serpent
are similar to demon Vritra, Shambara etc. Ahi becomes a barrier for flow of
waters. It becomes difficult to differentiate the qualities of demon Shambara
and Ahi. Qualities of Ahi can be understood on the basis of three gradations of
qualities . In it’s relatively pious form, it is called Shambara, one
who fills with tranquility. In mixed form, it has been called an energized Ahi.
At gross level, it is dark one. First published on internet : 7-3-2008 AD( Faalguna amaavaasyaa, Vikramee samvat 2064) वेद में उदक का प्रतीकवाद डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर (चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ ई. में स्वीकृत शोध प्रबन्ध ) अहि उदकनामों के प्रसंग में अहि: विशेष रूप से उल्लेखनीय है । अहि: शब्द निघण्टु के उदकनामों के अतिरिक्त पदनामों की सूची में भी विद्यमान है । अहि को घन या दण्ड द्वारा मारा जा सकता है( अथर्व १०.४.९), तो शवस्( ऋ. १.५१.४), ओजस( ऋ. १.८०.१) आदि उदकनामों द्वारा भी अहि का वध किया जाता है । घन - दण्ड और उदकनामों की इस समानता का कारण यही है कि दोनों प्रकार के शब्द हमारी आध्यात्मिक शक्तियों के प्रतीक हैं, जबकि अहि अहंकार रूपी वृत्रासुर का नाम है जो उन शक्तियों को विकृत करने वाला शत्रु है । वह आपः ( उदकनाम) को आवृत करने वाला अहि है जिसका वध करके ही इन्द्र आपः अथवा सिन्धुओं को मुक्त कराता है । इस प्रकार उदक तत्त्व के सूचक आपः आदि के आवरक अहि: को भी उदकनामों की सूची में समाविष्ट करना कुछ विचित्र सा लगता है, परन्तु जिस प्रकार उदकनामों में विष शब्द एक दूसरे उदकनाम अमृत का शत्रु कहा जा सकता है, उसी प्रकार अहंकार रूपी अहि: भी शुद्ध आपः ( प्राणाः ) का आवरक कहा जा सकता है । जिस प्रकार अन्धकार भी प्रकाश का ही एक पक्ष है, उसी प्रकार अहंकार रूप अहि उसी मूल उदक तत्त्व का ही एक ध्रुव है जो दूसरे ध्रुव से आने वाली प्राण धारा का आवरक शत्रु बन जाता है । अहंकार रूप अहि भी हमारी उसी आध्यात्मिक चेतना की विकृति है जो हमें अमृत आदि नामधारी उदक तत्त्व में देखने को मिलती है । अतः उसे भी उदक तत्त्व का ही एक रूप माना जाता है, परन्तु साथ ही आपः और अमृत जैसे उदक तत्त्व का वह विरोधी है, अतः उसका निवारण होने पर ही उदक तत्त्व का शुद्ध रूप (देवी आपः ) अभिव्यक्त हो पाता है । अहि नामक उदक तत्त्व के विषय में जो कुछ यहां कहा गया, वही शम्बर नामक उदक तत्त्व पर भी लागू होता है, क्योंकि वैदिक मन्त्रों में शम्बर का जो वर्णन मिलता है, वह अहि अथवा वृत्र के वर्णन की छाया मात्र है । इसीलिए कभी - कभी तो अहि शब्द का प्रयोग शम्बर के लिए ही हुआ प्रतीत होता है । उदाहरण के लिए, निम्नलिखित मन्त्र को ले सकते हैं - यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरदि अन्वविन्दत~ । ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्र: ।। - ऋ. २.१२.११ यहां शम्बर शान्तिपरक है, ओजायमान अहि क्रियापरक है और दानुं शयानं निष्क्रियतापरक है । अतः एक दृष्टि से यहां एक ही तत्त्व क्रमशः सत्त्व, रजस् और तमस् की प्रधानता से त्रिविध हुआ माना जा सकता है । अन्नमय कोश के अत्यन्त तमोमय होने से उसमें स्थित अहि को ही 'दानु: शये'( ऋ. १.३२.९) अथवा दीर्घं तम:( ऋ. १.३२.१०) कहा जाता है । प्राणमय कोश में रज: गुण अपेक्षाकृत अधिक होता है, अतः वहां अहि की सक्रियता को देखते हुए उसे 'ओजायमान अहि' कहा जाता है, अथवा उसके शरीर को गतिशील 'काष्ठाओं' के मध्य निहित ( ऋग्वेद १.३२.९) कहा जाता है । मनोमय कोश के अहि तत्त्व में अपेक्षाकृत सत्त्व अधिक होने से उसे 'शम्बर'( शान्तिपरक) माना जाता है । मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश के दश स्थoल प्राण, दश सूक्ष्म, दश इन्द्रियां, पंच तन्मात्रा और पंच महाभूतों में अहि के कारण शारदी जडता आ जाती है । इन्हीं को चालीस शरद माना जाता है । इन चालीस में से मनोमय कोश का जो शिखरभूत अन्तिम शरद है, उसी में इन्द्र शंबर को प्राप्त कर पाता है, क्योंकि अन्यत्र तो वह विविध प्रकार के पर्ववान् अंगों(पर्वतों) में निवास करता है, जबकि शारदी जडता के चालीसवें स्तर पर वह इनसे बाहर आ जाता है । ब्रह्म के प्रभाव से उक्त तीनों कोशों में आनन्दवृष्टि होती है, अतः कोशत्रय के सभी स्तर, जो अहि के प्रभाव से शरद थे, वे सब 'वर्ष' कहे जाते हैं । एक दूसरी दृष्टि से ब्रह्म और अहि से प्रभावित होने के कारण मनुष्य व्यक्तित्व के कोशत्रय को क्रमशः सत्यं और अनृतम् से युक्त कहा जाता है । सत्य का अर्थ मनुष्य में देवशक्तियों का उत्कर्ष है और अनृतम् का अर्थ असुरत्व प्रधान मनुष्यत्व का उत्कर्ष । इसी दृष्टि से शतपथ ब्राह्मण १.१.१.४, ३.३.२.२ ने कहा है - सत्यमेव देवा: अनृतं मनुष्या: । इसी बात को मैत्रायणी संहिता १.९.३ कहती है - ते देवा: सत्यमभवन् अनृतमसुरा: । अनृत ही अहि या वृत्र नामक असुर का असुरत्व है, जबकि ऋत/सत्य ही ब्रह्म का ब्रह्मत्व है - ब्रह्म वा ऋतम् ( मा. शतपथ ब्रा. ४.१.४.१०, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण ३.६.८.५) । इस प्रसंग में यह भी ध्यातव्य है कि अहि और ब्रह्म दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं । अहि वह अङ्गिरस प्राण है जो स्वर्ग से पतित होकर अहि बन गया है( अथ यद् (आङ्गिरस: स्वर्गाल्लोकात्) अहीयत तदहीनामहित्वम् - जैमिनीय ब्राह्मण ३.७७) । एक अन्य निर्वचन के अनुसार वह अपाद है, इसलिए उसको अहि कहा गया है ( यदपात्समभवत् तस्मादहि: - श.ब्रा. १.६.३.९) । दूसरे शब्दों में, अहि प्राण की उस पतित अवस्था का द्योतक है जो तमस् गुण से अत्यन्त पूर्ण होने के कारण रजोगुण की सक्रियता को लगभग खो बैठा है और जो भी सक्रियता शेष है, वह सत्त्व गुण की आत्यन्तिक न्यूनता के कारण सत्य के हनन एवं दुरित की बुद्धि में सहायक होती है । इसी दृष्टि से उणादि कोष( १.१३८) में अहि की व्युत्पत्ति आ - हन् से करके अहि को पूर्णरूपेण हनन करने वाला कहा गया है । इसलि जब अहि शब्द को पदनामों में सम्मिलित किया गया तो उसका उद्देश्य संभवतः यह दिखाना था कि अहि शब्द प्राणोदक के उस 'पद'(स्थान) का द्योतक है जो तमस् से पूर्ण होने के कारण तामसिक क्रियाओं का स्रोत होकर सात्विक क्रियाओं का बाधक बन जाता है । अप:, हवि: और इन्द्र(परमेश्वर) रूप में ॐ के अर्भ(ऋण) रूपों के प्रतीक क्रमशः उनके आदि वर्ण अ, ह तथा इ हो सकते हैं । अतः इन तीनों आदि वर्णों की संयुक्त इकाई होने से, अहि: शब्द अप:, हवि: और इन्द्र के अर्भत्व( ऋणात्मक स्वरूप) का द्योतक हो सकता है । अतः अहि: चेतना के जिस पद का नाम है, उसमें अप:, हवि: और इन्द्र लगभग नहीं के बराबर हैं । अतः अहि: में जहां 'शयानः इन्द्रशत्रु:' कहकर अप: की सक्रियता तथा इन्द्र के इन्द्रत्व का विरोधी 'ध्रुव' माना गया है, वहीं उसे दीर्घंतम: कहकर उसमें हवि(सोम) की ज्योतिर्मयता का विरोधी ध्रुव भी देखा गया है । दूसरे शब्दों में, अहि: प्राणोदक धारा का वह पद है जिसमें शुक्रम् जैसे ज्योतिसूचक उदक नामों की दीप्ति का लगभग पूर्ण अभाव होता है । अप:, हवि:(सोम) और ईम् के वर्धमान होते रहने का नाम ब्रह्म अथवा इन्द्र - जन्म है । उसी का ही दूसरा नाम है अहि का वध, क्योंकि इन्द्रजन्म वस्तुतः अहि पद का दूसरा(विरोधी) ध्रुव है । |