CONTRIBUTION OF FATAH SINGH 

TO

Veda Study

 

Home

Wadhva on Fatah Singh

Introduction

Rigveda 6.47.15

Atharva 6.94

Aapah in Atharvaveda

Single - multiple waters

Polluted waters

Indu

Kabandha

Barhi

Trita

naukaa

nabha

Sindhu

Indra

Vapu

Sukham

Eem

Ahi

Vaama

Satya

Salila

Pavitra

Swah

Udaka

 

One mantra  of Yajurveda indicates that not all manifested praanas can be called aapah. Only the praanas of very subtle level can be called aapah. The grosser type of praanas can be called as rishis, the seers. There is an adjective ‘mahat’ used with aapah in vedic texts. This mahat aapah is responsible for lower type of manifestation. It is worth knowing what this mahat is. This can be said to be the state after trance when self has not yet degenerated into the wisdom of illusion(ego). After this state, generation of five senses alongwith mind and ego take place. This is a conglomeration of seven. There is one eighth called ‘mahat’ which is the origin of these seven. It can be said that the first degeneration of non-manifest is this mahat. At the level of mahat, all gods disappear into one Indra. This mahat has the trait of infinite expanse, while the lower levels have finite expanse. Aapah have also been called as seven Sindhus, which are generated from the eighth level, the salilam. There is an anecdote in Braahmani texts that goddess Aditi gave birth to seven sons at one go, but the eighth son is special, golden. This eighth  can be called the golden egg of Egypt ’s mythology.

            There is yet another ninth form which is devoid of manifestation , callled  Aditi,  which produces divine milk for Indra. Indra can get this milk at the eighth level. This divine milk is called the first stream of aapah , the soma. And this Aditi conceives only in eighth state. This conceivement at the eighth state is actually the origin of manifestation. This bears the name Sindhu. Indra crosses this sindhu by seven sindhus and reaches to the stage of ninty nine rivers. This sindhu is the mother of mothers, while seven sindhus or seven aapah are only mothers. Seven aapah once takes birth once in the form of sindhu and second in the form of seven sindhus. Hence aapah is called both single born and twice born. When it is called single born, then it denotes aapah of all the eight states, while when called twice - born, then it denotes the aapah of only 7 lower stages. Thus, just like Aditi having 7 sons and having 8 sons, sindhu can also be called having 8 forms and 7 forms. And it's third form is of all - pervading yajna manifestation.

Previous page

Further comments on Aapah/waters

महत् शब्द के इस विवेचन से स्पष्ट है कि वेद में महत् आपः का गर्भ और उक्त सप्त काष्ठाओं का तथा उनसे उद्भूत सम्पoर्ण सृष्टि का स्रोत है इसके अतिरिक्त, महत् और इन्द्र का जो सम्बन्ध वेद में है, वही कठोपनिषद के महत् और आत्मा का है यह सम्बन्ध विशेष महत्त्व का है, क्योंकि उपनिषदों के अनुसार इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा ही है ऐतरेय उपनिषद में आरम्भ में ही स्वयं आपः की सृष्टि भी आत्मा से बताई गई है

आपो देवी: बुद्धियां

          इस प्रसंग में सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि वैदिक आपः बहुवचन तो हैं ही, साथ ही उन्हें सप्त आपः या सप्त सिन्धव: कहकर उक्त सप्त काष्ठाओं की तुलना में भी बैठाया जा सकता है दूसरे, ये सप्त आपः प्रथमजा हैं और इन प्रथमों( प्रथमान्- . १०.१७.११) को जो द्रप्स जन्म देता है, उसी को आपः की प्रथम इन्द्रपान ऊर्मि कहा गया प्रतीत होता है(. .४७.), जिसे इड पैदा करता है इड की शक्ति को ही वेद में बुद्धिवाचक इडा से अभिहित किया जाता है यह शक्ति ही इड का वह सहस्रार्ध भाग है( . १०.१७.) जो द्रप्स में परिणत होकर और सप्त आपः को जन्म देकर सप्त होत्रा: को सम्भव बनाता है ( ऋग्वेद १०.१७.११) अतएव यह स्पष्ट है कि इडा नामक बुद्धि से उत्पन्न ये सप्त आपः भी वे ही सप्त बुद्धियां अथवा आध्यात्मिक शक्तियां है जिन्हें पहले काष्ठाएं कहा गया है

          इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि इड और इडा उसी प्रकार एक दूसरे से सम्बद्ध हैं जैसे उपनिषद् का महान्(आत्मा ) और महत्(बुद्धि ) इड जिस प्रकार अग्नि प्रथम: है( . ..१०) जो पद में प्रज्वलित है, उसी प्रकार इडा भी समिद्ध प्रज्वलित होती कही जाती है ( . .२४.), क्योंकि वस्तुतः बुद्धि(धी) द्वारा अग्नि को वरेण्य बनाया जाना अथवा इडा द्वारा उस वरेण्य को धारण किया जाना (. .२७.-१०) ही इड(अग्नि) और इडा का समान रूप से समिद्ध होना कहलाता है जिस पद में अग्नि जलता है, वही इडा का पद( इडायास्पद) है जिससे सम्बद्ध आत्मा रूप इड को ही जातवेदा: ( अथर्व .१०.) वा प्रथम अग्नि इड ( . ..) कहा जाता है

           इड और इडा का यह संयुक्त पद ही वह सलिल( समुद्रज्येष्ठा: सलिलस्य मध्यात् पुनाना: यन्ति अनिविशमाना: - . .४९.) है जिसके मध्य से सप्त आपः देवी: का उद्गम है इसीलिए उसी सलिल को आपः का गर्भ कहा जाता है सलिल से उत्पन्न वत्सद्वय/वत्सौ(अथर्व ..-)यही इड और इडा अर्थात् महान् आत्मा और महत् हैं । इडा अथवा महत् वह माया(अहंपूर्व बुद्धि) है जिससे बृहती नामक दूसरी माया(अहंबुद्धि ) उपजती है (अथर्व ..-) बृहती /अहंबुद्धि षष्ठ बृहत्/मन को जन्म देती है जिससे पांच साम(अर्थ ) उत्पन्न होते हैं ( अथर्व ..-) सलिल को ही गतिशील ब्रह्म /ब्रह्मैनत् कहा जाता है जिसमें इड और इडा दोनों एक दूसरे से संयुक्त रहते हैं, इस बात को विपश्चित ही जान पाते हैं ( अथर्व ..)

- - - - -

सप्त काष्ठाओं में निहित दीर्घं तम: और अष्टम काष्ठा

          - - - अनेक काष्ठाओं में विभक्त होने से एक ही अज्ञानान्धकार अनेक वृत्रों अथवा अहियों के रूप में माना जाता है इसलिए काष्ठाओं को मुक्त करने के लिए अमित्रों को नष्ट करने की जिस प्रकार प्रार्थना की जाती है(. .६३.), उसी प्रकार दस्यु शम्बर के भेदन से सभी काष्ठाओं को हिलाने की भी बात कही जाती है( . .५९.) अथवा सभी काष्ठाओं और वृत्रों में इन्द्र को आने के लिए आहूत किया जाता है ( . .४६.)

          इन अनेक काष्ठाओं के अतिरिक्त भी एक काष्ठा है जिसके सुषुप्त वृषभ इन्द्र का युञ्ज उस व्यक्ति द्वारा द्रष्टव्य वा ज्ञातव्य है जो अनेक काष्ठाओं में कैद गायों को जीतना चाहता है( .१०.१०२. - - अन्य काष्ठाओं में जब असत्य(दीर्घं तम: ) की मति हो तो उसको नष्ट करने वाली सत् की मति वा सन्मति इसी काष्ठा में से पैदा करनी होगी( . .२१.) क्योंकि जहां अन्य काष्ठाएं सीमित हैं, वहीं यह काष्ठा उर्वी काष्ठा है जिसमें प्रमति वा सन्मति के रूप में धन छिपा है(हितं धनम् - . .८०.) जो आत्मा के तुरीय नामक यज्ञिय रूप के साक्षात्कार में भी सहायक होता है ( . .८०.) इसलिए स्वाभाविक निष्कर्ष यह निकलता है कि यह उर्वी काष्ठा वही सलिल पद है जहां इड और इडा(अहंपूर्व बुद्धि वा महत् ) दो परस्पर संयुक्त वत्सों के रूप में कल्पित किए गए थे और अन्य काष्ठाएं वे सप्त पद हैं जिन्हें अहंबुद्धि, मन और पांच अर्थ और सलिल से उत्पन्न होने वाले सप्त आपः या सप्त सिन्धव: की काष्ठाएं माना गया है इन सातों के संदर्भ में जीवात्मा को भी सप्त रूपों में कल्पित किया जाता है

आपः का सलिल और अष्टपुत्रा अदिति

          इसका तात्पर्य यह है कि जिस सलिल के मध्य से सप्त आपः आते हैं और जहां से असत् को नष्ट करने के लिए प्रमति, सन्मति अथवा इन्द्र आता है, वह मनुष्य के व्यक्तित्व की अष्टम काष्ठा है इसलिए इन आठ काष्ठाओं के संदर्भ में जीवात्मा के आठ रूपों की कल्पना की गई है ये ही अदिति के आठ पुत्र हैं जिनमें से सप्त आपः के समान, सात पुत्र तो एक साथ बताए जाते हैं और आठवां पुत्र मार्ताण्ड विशिष्ट है ( ऋग्वेद १०.७२.-) सात पुत्रों के द्वारा तो अदिति देवों(बहुवचन) तक पहुंचती है, पर मार्ताण्ड को परा ग्रहण करती है और प्रजा के पालन तथा मृत्यु के निवारण के लिए उसी को पुनः सप्तपुत्रों के पूर्व्य युग(. १०.७२.) में ले जाती है जो निस्सन्देह सप्त आपः का क्षेत्र है अतः इस मार्ताण्ड की तुलना मिस्र के उस सुनहरे अण्डे से की जा सकती है जो मार्ताण्ड के समान आप/जलों पर प्रकट होता है यही वह सूर्य के समान तेज वाला अण्डा है जो मनुस्मृति के अनुसार आपः में उद्भूत हुआ और वेद में वर्णित यही वह गर्भ कहा जा सकता है जिसे धारण करती हुई आपः अग्नि को जन्म देती है ( . १०.१२१.), अथवा वह दक्ष है जिसे धारण करती हुई वे यज्ञ को जन्म देती हैं( . १०.१२१.), क्योंकि सप्त आपः का क्षेत्र ही नानात्वमयी सृष्टि का क्षेत्र प्रतीत होता है

- - - -

          अष्टविध सृष्टि की जननी अदिति को अष्टयोनी, अष्टपुत्रा तथा अष्टमी रात्रि(अथर्व ..२१) कहा जाता है अदिति की इस अष्टविध सृष्टि में से सभी आठोंx का सम्बन्ध इन्द्र से(अष्टेन्द्रस्य) है, सातों का सप्त ऋषियों से( ऋषीणां सप्त सप्तधा) तथा छह का यम से ( षड्- यमस्य - अथर्व ..२३) पर अदिति का एक केवली रूप भी है जो इन्द्र के लिए प्रथम पीयo दुहने वाली ष्टि ( अथर्व ..२४) कही जाती है इस प्रथम पीयo की तुलना पूर्वोक्त आपः की प्रथम इन्द्रपान ऊर्मि( . .४७.) से भी की जा सकती है जो निस्सन्देह पवमान सोम है( . .९६., १३), जिसको आपः की रचना करने वाला तो बताया ही जाता है( . .९६.), पर जो मतियों, अग्नि, सूर्य , इन्द्र और विष्णु का भी जनक है और जायमान पूर्व्य और अद्रि में आपः के भीतर दुहा जाने वाला है ( ऋग्वेद .९६.)

          इस विवेचन से दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं । पहला तो यह कि अदिति के सप्तपुत्रा और अष्टपुत्रा रूप जो ऊपर देखे गए, उनके अतिरिक्त एक तीसरा केवली रूप भी है जो इन्द्र के लिए सोम दुहता है दूसरा निष्कर्ष यह कि यह सोम इन्द्र को मिलता है अष्टम काष्ठा में, जहां वह(सोम) इन्द्र के अतिरिक्त अग्नि, सूर्य, विष्णु आदि को भी पैदा करता है और कि इस सोम की पंहुच सप्त आपः के क्षेत्र तक है यह एक विचित्र बात लग सकती है पर वेद में इस बात को युक्तिसंगत बनाने के लिए अदिति को नवगज्जनित्री ( अथर्व .९११) नाम दिया है और उसमें बडी महिमाएं छिपी हुई ( महान्त: महिमान: ) मानी हैं । नवगज्जनित्री का अर्थ यही हो सकता है कि वह नौ काष्ठाओं में विद्यमान होती हुई अष्टकाष्ठाओं की जननी भी है, इसलिए जो बडी महिमाएं इसके अन्दर छिपी हुई बताई गई हैं, वे अष्ट काष्ठाओं में प्रकट होने वाली शक्तियां हैं । पर वह जनित्री बनती है अष्टम काष्ठा में, क्योंकि प्रथम पीयo और इन्द्रपान कही जाने वाली आपः की प्रथम ऊर्मि( सोम) का जन्म भी वहीं होता है अतः नवगज्जनित्री अदिति केवली वह अव्यक्त तत्त्व है जिसे उपनिषद के उद्धरण की व्याख्या करते हुए अजन्मा परा काष्ठा(पुरुष) में अन्तर्निहित माना गया है इसलिए अष्टविध सृष्टि की जनित्री होती हुई भी, वह अजन्मा काष्ठा सहित नव काष्ठाओं में विद्यमान मानी गई है अष्टम काष्ठा में होने वाली इसकी अभिव्यक्ति को प्रथम उषा वा एकाष्टका कहा गया है जो अपने से नीचे सात काष्ठाओं में उसी प्रकार प्रविष्ट मानी गई है(अथर्व ..११) जिस प्रकार नवगज्जनित्री इसी प्रकार प्रत्येक काष्ठा अपने से नीची अन्य सभी काष्ठाओं में प्रविष्ट है

सिन्धु और सप्त आपः

          सप्त तन्तुओं वा सप्त सिन्धुओं (आपः) के स्तर की जो जीवकेन्द्रित नानात्वमयी सृष्टि प्रतीत होती है, वह अष्टम काष्ठा के बिना नहीं सोची जा सकती है नवगज्जनित्री कही जाने वाली स्वयंभू अदिति सर्वप्रथम अष्टम काष्ठा में ही गर्भ धारण करती है अतः अष्टम काष्ठा का गर्भ ही वस्तुतः आद्यासृष्टि है इसी का नाम सिन्धु है जिसे सप्त सिन्धव:(आपः) द्वारा पार करके इन्द्र(महान् आत्मा) निन्यानबे नदियों की सृष्टि तक पहुंचता है( ऋग्वेद १०.१०४.) और मनुष्यों और देवों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है सिन्धु को लेकर इन नदियों की संख्या सौ होती है, जिनकी तुलना सौ देवकर्मों के यज्ञ से की जा सकती है इस प्रकार सिन्धुओं को शतरूपा सर्वताति यज्ञ के रूप में प्रकट होने वाली भी माना जा सकता है यह सिन्धु मातृतमा है (. .३३.), जबकि सप्त सिन्धव: वा सप्त आपः केवल माताएं हैं ( ऋग्वेद .४५.२४-२५, .२९., १०.६४.) सिन्धु वह समान योग है जहां सप्त आपः का रथ अन्ततोगत्वा पहुंचता है (. .६७.) सिन्धु हिरण्यवर्तनि है( . .२६.१८) और उसका गर्भ ( महान् आत्मा ) हिरण्यगर्भ कहलाता है इसी गर्भ को लेती हुई सप्त आपः सिन्धु से बाहर आती है और अग्नि को सब देवों के असु रूप में वा देवाधिदेव यज्ञ रूप में जन्म देती है अतः सप्त आपः एक बार तो सिन्धु रूप में और दूसरी बार सप्त सिन्धुओं के रूप में जन्मती है अतः आपः को द्विजा(दो बार जन्म लेने वाली) और प्रथमजा(प्रथम बार जन्म लेने वाली) दोनों ही विशेषण दिए जाते हैं ( . १०.६१.१९) प्रथमजा कहने पर आठोंx काष्ठाओं की आपः ( अष्ट जाता: प्रथमजा: ऋतस्य - अथर्व ..२१) का बोध होता है तो द्विजा कहने से केवल नीचे की सप्त काष्ठाओं की आपः का । इस प्रकार अष्टपुत्रा और सप्तपुत्रा अदिति के समान सिन्धु भी अष्टरूपा और सप्तरूपा दोनों ही कही जा सकती है और तीसरा उसका रूप सर्वताति यज्ञ सृष्टि का है

 

अप:

विश्वकर्मा के अङ्गभूत 'कर्म' नामक तत्त्व को एक अन्य उदक नाम 'अप:' में देखते हैं , जो स्वयं कर्मवाचक भी है यह कर्मनाम और उदक - नाम अप: शब्द वस्तुतः प्राणवाचक 'आपः( उदक नाम) का ही एक रूपान्तर माना जा सकता है, क्योंकि हमारी प्राणशक्ति ही तो कर्म रूप में प्रकट होती है यही अप:( कर्म) वह है जो यज्ञ रूप में विस्तार पाकर जब 'समुद्र विश्वदेव्य:' बनता है तो स्वादिष्ठा धीति को अभिव्यक्ति मिलती है -

 ततं अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते अयं समुद्र इह विश्वदेव्य: स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभव: ।। - . .११०.

          स्वादिष्ठा धीति से संकेत यहां सोम नामक आनन्दानुभूति से है जो स्वादिष्ठा धारा द्वारा इन्द्र हेतु पवमान होता हुआ( . ..) कहा जाता है यह सोम ही हवि और हविर्धान कहा जाता है( अथ यदस्मिन्त्सोमो भवति हविर्वा देवानां सोमस्तस्मात् हविर्धानं नाम - .ब्रा. ...) हविर्धान यज्ञ का शिर है ( .ब्रा. ...) और हविर्धान का प्रतीक पुरुष का शिर है ( कौशीतकि ब्राह्मण १७.) क्योंकि स्वादिष्ठा धीति के रूप में सोम(हविर्धान) का मनुष्य के शिर से अभिन्न सम्बन्ध है

          इस विवेचन से स्पष्ट है कि यज्ञ रूप में विस्तार योग्य आपः और स्वादिष्ठा धीति रूप में हविर्धान सोम भी निस्सन्देह आध्यात्मिक तत्त्व ही है पूर्वोक्त अप: (कर्म ) के विस्तार होने के साथ ही के भी विस्तार की बात कही गई है - तद् तायते पुनः यहां यह संकेत है कि अप: रूप में वस्तुतः ॐ का ही अस्तृत( संकुचित) लघुरूप है जो यज्ञ रूप में विस्तार पाकर 'समुद्र विश्वदेव्य:' हो जाता है

 

Previous page