CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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ऋत नामक प्राणोदक के योग से ही प्राण - सोम को 'वाम' कहा जाता है, परन्तु सोम मात्र वाम नहीं है, ऋत - रहित सोम कदापि वाम नहीं । वाम शब्द को निघण्टु में प्रशस्य नामों में परिगणित किया गया है । इसकी पुष्टि ताण्ड्य महाब्राह्मण भी यह कहकर करता है कि जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसी को वाम कहते हैं ( तां.ब्रा. १३.३.१९) । वास्तव में सोम प्राण का उत्कृष्ट रूप ही वामदेव है क्योंकि उसी को सब प्राण देव अपने में श्रेष्ठ मानते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.२.१-३) । यही वामदेव्यं नामक साम की स्थिति है, जिसको शिवं, शान्तं, सुष्वाणं कहकर( जैमिनीय ब्राह्मण २.१९४) उसका समीकरण स्वयं आत्मा (जैमिनीय ब्राह्मण २.४११) अथवा यज्ञमान लोकोऽमृतलोक: स्वर्गोलोक: के साथ किया जाता है ( ऐतरेय आरण्यक ३.४६) । यही 'वामदेव्यं' नामक स्थिति कौशीतकि ब्राह्मण २७.२, २९.३-४ के अनुसार शान्तिरूप भेषज कही जाती है और सभी सामों का सत् भी उसी को माना जाता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण १५.१२.२) । यह जीवात्मा रूप प्राण नानात्व प्राप्त प्राणों को संगृहीत कर लेता है तो वह उन सब प्राणों के साथ ऊर्ध्वदिशा में उत्क्रमण करने वाला वामन(जैमिनीय ब्राह्मण ३.५१८) कहा जाता है और वही अन्ततोगत्वा विष्णु का रूप धारण कर लेता है (शतपथ ब्राह्मण १.२.५.५) । इसका अभिप्राय है कि प्राण रूप सोम पूर्वोक्त ऋत के उत्तरोत्तर सम्पर्क से अपने वामन रूप को विकसित करके तीनों लोकों को अपने उत्क्रमणों में समाहित करने वाला विराट् विष्णु बन जाता है । प्राण की इसी स्थिति का समीकरण स्व: ज्योति से किया जाता है, जो स्वयं एक उदकनाम है और इसे ही वाम, प्रकाश तथा उरु अन्तरिक्ष का भी नाम दिया जाता है और साथ ही यह भी बताया जाता है कि यह सोम का वह 'हवि' नामक स्वरूप है जो वृत्रवध के बाद उभरता है और जिसके द्वारा मनुष्य व्यक्तित्व में अग्नि और वरुण यजन करने लगते हैं - इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् । हनाव वृत्रं निरेहि सोम हविष्ट~वा सन्तं हविषा यजाम ।। - ऋ. १०.१२४.६ इसी वाम को अपना उपास्यदेव बनाने वाला साधक वामदेव कहलाता है जिसकी बुद्धियों(धीनाम्) का रक्षक परमेश्वर रूप इन्द्र होता है ( ऋग्वेद ४.१६.१८) । इसी इन्द्र के नेतृत्व में सुनीति(सुमार्ग) और वामनीति( वाम की ओर गमन ) उभरती है जिसके द्वारा हम साधक लोग भवसागर को आत्यन्तिक रूप से पार करने में समर्थ होते हैं । इस विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप हम भूरिवाम रूप निवास के वाम के भागीदार होते हैं । यह कार्य जिस धी के द्वारा होता है, उसी से युक्त होकर साधक प्रार्थना करता है कि हे सविता देव, हमारे लिए वाम को आज उत्पन्न करो, कल उत्पन्न करो और प्रतिदिन उत्पन्न करो जिससे हम उस वाम के भागीदार बन सकें ( ऋग्वेद ६.७१.६) । अतः यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि वाम के इस अन्तिम स्वरूप को प्राप्त करने की प्रक्रिया में अनेक प्रकार के वामों की प्राप्ति होती है । इसी दृष्टि से वैदिक ऋषि विभिन्न देवों से प्रार्थना करता हुआ बार - बार कहता है कि हम वामों का ध्यान करें -- - - वामानि धीमहि( ऋग्वेद ५.८२.६, ८.२२.१८, ८.१०३.५) । यही वाम के आत्यन्तिक रूप को प्राप्त करने की उत्तरोत्तर प्रगतिशील वाम नीति है जो सुकर्म करने वाले अपनाते हैं और यही इन्द्र के लिए होने वाला वह सोमाभिषवण माना जाता है जिससे दिव्य धाम के निमित्त विभिन्न प्रकार के वाम(वामं वामं) तथा वसु( वसु वसु ) प्राप्त होते हैं । ईम् और ऊम् मनुष्य की चेतना धारा में, उदक में जो विष मिल जाता है, उसके शोधन की आवश्यकता होती है जिससे शुद्ध उदक जीवात्मा को प्राप्त होता रहे । लेकिन इस विष को, अघ को देखने वाला द्रष्टा कौन बन सकता है? उत्तर में कहा जाता है कि वह ''युञ्ज'' ॐ है जिससे साधक लोग युक्त होते हैं और जिसको अपने भीतर सर्वत्र स्थापित करते हैं । वही हमारे व्यक्तित्व रूपी रथ का धुर वहन करता है और उसको दिशा देता है । वह ऐसा सहज सुलभ तत्त्व है जिसको बुलाने के लिए न तो तृण की आवश्यकता पडती है, न उदक की - आरे अघा को न्वि१त्था ददर्श यं युञ्जन्ति तम्वा स्थापयन्ति । नास्मै तृणं नोदकमा भरन्त्युत्तरो धुरो वहति प्रदेदिशत् ।।( तम्वा - तम् - ॐ-आ) - ऋग्वेद १०.१०२.१० यद्यपि ॐ को तृण या उदक की आवश्यकता नहीं पडती है, परन्तु ईम् नामक उदक स्वयं ही उस ॐ को प्राप्त हो जाती है और इस प्रकार वह सर्ववासयिता (वसु) उसका अनादर न करता हुआ सुमना हो जाता है - अद्येदु प्राणीदममन्निमाहा ऽपीवृतो अधयन्मातुरूध: । एमेनमाप जरिमा युवानमहेळन् वसु: सुमना बभूव ।। (अद्य इत् ॐ प्र आनीत् अममन् इमा अहा अपिवृतः अधयन् मातु: ऊध: । आ ईम् एनम् आप जरिमा युवानमहेळन्वसु: सुमना बभूव ) - ऋग्वेद १०.३२.८ यह मन्त्र अति महत्त्वपूर्ण है । इसमें ॐ के साथ प्र + आनीत् का प्रयोग करके संकेत दिया गया है कि ॐ प्राण रूप होकर आता है । इसी प्रकार, ईम् के साथ उसी आप् धातु का प्रयोग किया गया है जिससे कि आपः शब्द निष्पन्न है । इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि ईम् और अप: दोनों निघण्टु के उदक नामों में परिगणित हैं । यहां ईम् के लिए ''जरिमा'' शब्द का प्रयोग हुआ है जो जार अथवा जारिणी का पर्यायवाचक है । आपः शब्द भी स्त्रीलिङ्ग ही है । इसलिए ईम् रूप आपः को जरिमा कह कर और ॐ को युवा कह कर ॐ और ईम् में पुरुष और स्त्री अथवा प्रेमी और प्रेमिका के रूपक होने का संकेत कर दिया गया है । ईम् वस्तुतः बाह्यजगत में व्याप्त ब्रह्म की वह ब्राह्मी शक्ति है जो ऊर्ध्व गति करती हुई व्यष्टिगत व्यक्तित्व में प्रवेश करती जाती है । ब्रह्म अन्दर - बाहर सभी का वासयिता होने से ऐसा ''वसु'' कहा गया है जो ईम् को अपना ही मानकर सुमना होकर स्थित हो जाता है । ॐ व्यष्टिगत जीव का तेजोमय पिता है । इसलिए उसके आगमन से उत्पन्न प्रकाशों ( इमा: अहा: ) का उसको ज्ञान(अममन्) हो जाता है और साथ ही वह उस प्रकार से आवृत होकर ईम् रूप माता का स्तनपान करने लगता है । जीवात्मा के उक्त माता - पिता ( ईम् - ॐ) की तीन शक्तियां है जो उन्होंने अपने सभी पुत्रों(जीवों) को प्रदान की हैं । वेद में इनको ऋभु:, विभ्वा और वाज नाम दिया गया है । और साथ ही ब्रह्मवाक् रूपी एक गौ भी दी है । उक्त तीनों में एक उस गाय को उदक लाता है, दूसरा उसके मांस को अलंकृत करता है और तीसरा उसके शकृत् (गोबर) को दूर फेंकता है ( ऋग्वेद १.१६१.१०) । ऋभु:, विभ्वा और वाज क्रमशः ज्ञानशक्ति, भावना शक्ति और क्रिया शक्ति के द्योतक हैं और गौ उस ब्राह्मी वाक् की प्रतीक है जो प्रत्येक जीवात्मा को मिली हुई है । क्रियाशक्ति ( वाज) इस गाय के लिए बाह्य जगत् से प्राणोदक लाती है, भावना शक्ति(विभ्वा) उसके मांस(स्थूल अभिव्यक्ति ) का अलंकरण करती है और ज्ञान शक्ति( ऋभु: ) अज्ञानरूप शकृत् को निकाल फेंकती है । इस प्रकार सभी जीवों को उन्हें प्राप्त ब्रह्मवाक् रूपी गाय की सेवा के लिए तीन सेवक मिले हुए हैं । |