CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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ऋग्वेद ९.३४ से ज्ञात होता है कि पवमान सोम ने यह प्रार्थना सुन ली है । अतः वह कहता है कि इन्दु गतिशील हो गया है और अपने ओज से अत्यन्त दृढ बाधाओं को भी नष्ट कर रहा है ( ऋग्वेद ९.३४.१) : अब इन्द्र, वायु, वरुण, मरुतों और विष्णु के निमित्त पयः नामक प्राणोदक शक्तिपूर्वक दुहा जा रहा है तथा विभिन्न रूपों में सम्यक् गतिशील होता हुआ, दुरित को हरण करने वाला हरि नामक सोम, जो त्रित के लिए अन्वेषणीय था, वह आत्मा रूपी इन्द्र के लिए मत्सर( मस्त, मद) करने वाला हो गया ( ऋ. ९.३४.४) । अब ईम् नामक प्राणोदक 'ऋतस्य विष्टपं' तथा 'चारु प्रियतमं हवि: ' हो गया, जिसका दोहन मरुत नामक प्राण कर रहे हैं ( ऋ. ९.३४.५) । इस प्रकार ब्रह्मानन्द रूप सोम की कृपा उपलब्ध होने पर त्रित अपने आध्यात्मिक विकास की उस चरम सीमा तक पहुंच जाता है जिसकी झलक ऋ. १०.१-७ में भली भांति प्राप्त होती है । ये सात सूक्त जिस अग्नि को सम्बोधित हैं, वह जातवेदस् अग्नि है जिसका विज्ञान विप्रों को मतियों के द्वारा (मतिभि: ) प्राप्त होता है ( ऋग्वेद १०.६.५), क्योंकि यह अग्नि आत्मा के उस रूप का द्योतक है जिसमें क्रियापरक इन्द्र ज्ञानपरक अग्नि में सोम को उदरस्थ किए हुए चित्रित किया जाता है ( अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोमममिन्द्र: सुतं दधे जठरे वावशानः । सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेद: ।। - ऋग्वेद ३.२२.१) । इन्द्र, अग्नि और सोम नामक इन तीन पक्षों को ही त्रित के 'त्रीणि योजनानि' कहा गया है , जिनका निर्माण सुक्रतु सोम अपनी धारा से एक रयि के रूप में करता है ( ऋग्वेद ९.१०२.३) । वास्तव में इस त्रिविधता के कारण ही जीवात्मा को त्रित कहा जाता है, परन्तु उसकी यह त्रिविधता एकीभूत जातवेदस् का रूप तभी ग्रहण कर सकती है जब वह अहंकार जन्य कूप से बाहर निकल पाता है । आत्मा का यह एकीभूत रूप वह रयि है जिसे सभी आध्यात्मिक धनों का ध्रुव( ध्रुवो रयीणां ) कहा जाता है और जो उस जायमान इन्दु को जानता है जिसका वर्णन अब अहंबुद्धि, मन तथा पंच ज्ञानेन्द्रियों रूपी सप्त माताएं करती हैं ( ऋ. ९.१०२.४) । यह ब्रह्मानन्द रस रूप सोम ईम् नामक प्राणोदक का वह चारु गर्भ है जिसको वे विश्वेदेवा: ही जन्म दे पाते हैं जो उसके व्रती होने से द्रोहरहित, परस्पर प्रीति सम्पन्न होकर स्पृहणीय रमणीय और ऋत का वर्धन करने वाले कहे जाते हैं ( ऋ. ९.१०२.५) । अब यह अनुभूति द्वित की उस स्थिति से भिन्न है जिसमें वह त्रित की सारी सम्पत्ति का हरण करके उसे कूप में ढकेलने वाला बना था । अब प्राणमय आत्मा रूप द्वित आप्त्य भी अपने सूक्त(ऋ. ९.१०३) में अनुभव करता है कि मन और बुद्धि सहित पंच प्राण भी ऋषियों की सप्त वाणी बन गए हैं, क्योंकि अब पवमान सोम उसके (प्राणमय कोश के ) स्तर को भी मधुश्चुत(कोशं मधुश्चुतं ) बना रहा है और वह स्वयं मतियों का नेता ( नेता मतीनां ) तथा एक विश्वदेव हो गया है ( ऋ. ९.१०३.३) । फिर भी उसकी प्रार्थना है कि वह अमर्त्य इन्द्र के साथ सरथ होकर पवमान होता हुआ सर्वत्र व्याप्त हो जाए ( ऋ. ९.१०३.५-६) । द्वित के समान एकत आप्त्य भी परिवर्तित परिस्थियों में बदला हुआ दिखाई पडता है । अतः ऋग्वेद १०.१५७ के ऋषि के रूप में भुवन 'आप्त्यः साधनो वा भौवनः ' कहा जाता है । इसका तात्पर्य है कि अब वह सम्पूर्ण भुवनं का साधन रूप हो गया है और पहले जैसा स्वार्थी और क्षुद्र नहीं रहा । तदनुसार वह कामना करता है कि इन्द्र आदित्यों और मरुतों के साथ हम सब के तन्तुओं का (अस्माकं तन्तूनां ) रक्षक बने तथा जो भी असुर आएं, देव उनका हनन करके देवत्व की रक्षा करे ( ऋग्वेद १०.१५७.१- ३) । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह भुवन आप्त्य अन्नमय शरीरों (तनूनां ) की रक्षा चाहने वाला वही एकत आप्त्य है जिसे हमने अन्नमय कोश का प्राण कहा था, परन्तु अब इसको एक बदली हुई मनोवृत्ति वाला व्यक्ति बतलाने के लिए देवों का हितचिन्तक तथा असुरत्व का विरोधी बताया गया है । इसी दृष्टि से उसकी यह भी प्रार्थना है कि देव लोग अपनी शक्तियों के द्वारा ( शचीभि: ) आरोहण करने वाले सूर्य को पुनः वापस लाएं और जिसके पश्चात् हम लोग अपनी एषणीय स्वधा(वृष्ट्युदक ) को सर्वत्र देखें ( ऋग्वेद १०.१५७.३) । इस प्रकार अहंकार रूप अहि के प्रभाव से मुक्त होने पर जो त्रित, द्वित और एकत क्रमशः अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश को अलग - अलग समझ रहे थे, अब वे सब एकीभूत होकर आनन्द सोम की उस दिव्य ऊधस् से सिंचित हो रहे हैं जिसको पूर्ण और सर्वताति अदिति कहा जाता है तथा जिसकी प्राप्ति होने पर सोम का अभिषवण करने वाले 'भद्रा प्रमति: ' के अधिकारी बन जाते हैं ( ऋ. १०.१००.११) । यहां उसे ऊधस् अदिति कहने से जहां उसकी अद्वैत अखण्डता का बोध होता है, वहीं सर्वताति कहने से उसकी बहुमुखी व्याप्ति की ओर संकेत होता है । इसका तात्पर्य है कि जब विश्वगत आन्तरिक अखण्डता के साथ - साथ सर्वगत व्याप्ति भी होती है, तभी मनुष्य व्यक्तित्व पूर्ण कुम्भ बनता है जिसे अमृतयुक्त धारा से पूर्ण माना जा सकता है ( अथर्व ३.१२.८) । इस प्रकार जब अवरोहण करता हुआ पवमान सोम आत्मा रूपी इन्द्र के निमित्त मनुष्य - व्यक्तित्व को एक पूर्ण चमस के रूप में परिवर्तित कर देता है, तभी इन्दु सर्वत: प्रवाहित होकर पुण्यात्मा व्यक्ति का भोजन बन जाता है ( अथर्व १८.३.५४) । दूसरे शब्दों में, जो परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण ब्रह्मानन्द रस है, उस पूर्ण से संयुक्त होकर व्यष्टिगत आनन्द भी पूर्ण रूप में प्राप्त हो जाता है । इसी बात को लक्ष्य करके कहा जाता है कि पूर्ण से पूर्ण को प्राप्त किया जाता है, परन्तु फिर भी साधक की यह अभिलाषा रहती है कि हम उस स्रोत को जान सकें जिससे यह परिसिंचन हो रहा है - पूर्णात्~ पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिंचति । उतो तदद्य विद्याम यतस्तत् परिषिच्यते - अथर्व १०.८.२९ |