CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व एक दिवसीय संगोष्ठी, २७ अप्रैल, २००८ ई. (वेद संस्थान, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली - ११००२७) ढाई अक्षर वेद के - शशि प्रभा गोयल सारांश डा. फतहसिंह द्वारा लिखित पुस्तक ''ढाई अक्षर वेद के' उन संवादों का संकलन है जो 'वेद सविता' पत्रिका में अगस्त १९८४ से अक्टूबर १९८८ तक इसी शीर्षक से प्रकाशित किए गए । यह पुस्तक वेद की प्रतीक शैली और उसके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व ज्ञान को समझने के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है । इस संवाद में शिष्य रूप में एक शिष्य हैं अस्सी वर्षीय रूसी विद्वान जो वेद पढने के लिए भारत आए पर रूसी, तुर्की और फारसी के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा नहीं जानते थे । दूसरे शिष्य थे मौलवी अब्दुल मजीद जो हिन्दी भाषा का अनुवाद फारसी में करके रूसी विद्वान को समझाते थे । इस प्रकार यह संवाद की शृङ्खला प्रारम्भ हुई और वेद के रहस्यों पर से परदा उठता चला गया । वेदों का सार है ओ३म् - अ उ म् और इन्हीं को ढाई अक्षर की संज्ञा दी गई है । लेखक ने बहुत सुन्दर शैली में ओम् से आमीन्, अमेन्, व्योमन्, परम व्योमन् की अवस्थाएं स्पष्ट की हैं । ओ३म् ही चिर शान्ति और आनन्द का प्रतीक है । ओम् + अन् शान्ति की सांस का प्रतीक है और इसी से वि उपसर्ग लग कर ओमन् --- व्योमन् और परमानन्द की अवस्था परमव्योमन् कहलाई । इसी भांति इस ग्रन्थ में पञ्च कोशों की व्याख्या, अगस्त्य और विन्ध्याचल, पुरूरवा और उर्वशी, अगस्त्य और लोपामुद्रा, विश्वामित्र का तप, सप्त ऋषि, यम का ऋषित्व, नचिकेता और त्रिणाचिकेत अग्नि, वैवस्वत मनु, मानव और मानुष, मेघ और इन्द्र, अपांनपात्, वैदिक अश्व, ओम् और ॐ, अश्व - अश्वी, अश्विनौ के रथ आदि के प्रतीक क्या संकेत देते हैं, यह इस पुस्तक के अध्ययन से स्पष्ट होता चला जाता है । आप इन तर्कों से सहमत हों या न हों, यह एक अलग विषय है । वेद तो अल्पज्ञ से वैसे ही डरता है कि यह मुझे न समझ कर अर्थ का अनर्थ ही न कर डाले । मूलतः वेद कोई इतिहास भूगोल की पुस्तक नहीं है । यह वह ज्ञान है जिसके जानने पर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, जिसके समझने पर कुछ और समझना भी अवशिष्ट नहीं रहता । पहले वेद के प्रतिपाद्य को समझना होगा, वेद की प्रतिपादन शैली को समझना होगा । फिर निस्सन्देह वह दृष्टिकोण मिल जाएगा जिसके परिप्रेक्ष्य में वेद को समझना सम्भव हो सकेगा । यही इस ''ढाई अक्षर वेद के '' पुस्तक का प्रतिपाद्य है ।
डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व एक दिवसीय संगोष्ठी - २७ अप्रैल, २००८ ई. (वेद संस्थान, नई दिल्ली - ११००२७) सिन्धु घाटी लिपि में ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक - डा. रेणुका राठौर सारांश प्रस्तुत ग्रन्थ में वेदों एवं भाषा विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् डा. फतहसिंह जी ने सिन्धु मुद्राओं पर अंकित लिपि का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता उत्तरवैदिक सभ्यता थी, क्योंकि इन मुद्रा लेखों में ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के प्रतीकों का अंकन प्रचुरता से किया गया है । इस अनुसन्धान से पूर्व भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने सिन्धु घाटी सभ्यता को अवैदिक और अनार्य सिद्ध किया था और उन्होंने मुद्रा लेखों में एक ही प्रकार की लिपि अंकित मानी थी । इसके विपरीत, डा. फतहसिंह जी के अध्ययन से चार लिपियों का अंकन सिद्ध हुआ, जिनमें से तीन बायीं ओर से दाहिनी ओर तथा एक दाहिनी से बायीं ओर को लिखी जाती थी । अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्होंने चारों लिपियों तथा सिन्धु लिपि की वर्णमाला का देवनागरी के साथ तुलनात्मक चित्रण सप्रमाण प्रस्तुत कर फादर हेरास और उनके भारतीय शिष्यों के उस विचार पर पूर्ण विराम लगाने का प्रयत्न किया जिसके अनुसार सिन्धु घाटी की संस्कृति अनार्य जैन संस्कृति सिद्ध हुई और उसके विनाश का कारण आर्यों के आक्रमण को माना गया । मोहनजोदरों और हडप्पा के लेखों में अग्नि, इन्द्र, इन्दु, वृत्र, वरुण, अज, अजा, श्येन, उमा, उखा, क, अन, अप आदि शब्दों का उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त होना जिनमें वे ब्राह्मणों एवं उपनिषदों में होते थे, सिन्धु सभ्यता को उत्तरवैदिक काल का सिद्ध करता है । विद्वान् लेखक की मान्यता है कि इस शोध के आधार पर इतिहासज्ञों को निम्नलिखित बिन्दुओं पर पुनर्विचार करना चाहिए - १. ऋग्वेदादि संहिताओं का काल २. वैदिक लोगों के आदि देश की समस्या ३. भारतीय योग, मन्त्र, तन्त्र, आगम, पुराण, शैव और शाक्त मत कोई अभारतीय विचार नहीं, अपितु इनका उद्गम वेद से ही हुआ है । इस सम्बन्ध में डा. फतहसिंह जी का कहना था कि ''इसमें सन्देह नहीं कि मेरे इन निष्कर्षों के विरोध में विद्वानों ने पहले से ही अनेक प्रमाण प्रस्तुत कर रखे हैं, परन्तु मेरा अनुमान है कि जैसे - जैसे 'स्वाहा' में सिन्धु घाटी के मुद्रा चित्रों और लेखों की व्याख्या क्रमशः निकलती जाएगी, वैसे - वैसे वे प्रमाण निराधार सिद्ध होते जाएंगे ।' खेद की बात है कि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित 'स्वाहा' पत्रिका के दो अंक ही प्रकाशित हो पाए कि देश की विघटनकारी शक्तियों ने केन्द्र सरकार के पास जाकर इस प्रकार के शोध पर रोक लगाने की मांग की । फलतः सेवा निवृत्ति के पश्चात् अतिरिक्त कार्यावधि में शोध कार्य कर रहे डाक्टर साहब को अविलम्ब सेवामुक्त कर दिया गया । इस प्रकार एक राष्ट्रीय महत्त्व का शोध अंकुर अवस्था में ही समाप्त हो गया । आह्वान - डा. फतहसिंह जी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी यदि इस 'गागर के सागर' के समान गम्भीर इस छोटे से ग्रन्थ से दिशानिर्देश प्राप्त कर उनके अधूरे कार्य को पूर्ण कर सकें । The book Symbolism of Braahmanaas and Upanishads in Indus Valley Script is now available on internet
डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व एक - दिवसीय संगोष्ठी - २७ अप्रैल, २००८ ई. (वेद संस्थान, नई दिल्ली ) आर्य - शूद्र वैमनस्य और वैदिक दृष्टि - डा. सुरेन्द्र कुमार (मनुस्मृति भाष्यकार ) सारांश डा. फतहसिंह ने वैदिक ग्रन्थों की प्रतीक व्याख्या शैली का अनुसरण कर जहां अनेक रहस्यों को उद्घाटित किया है, वहीं उनको समृद्ध करके आगे भी बढाया है । प्रतीक - व्याख्या से आर्य - शूद्र वैमनस्य जैसे विवाद सर्वथा समाप्त हो जाते हैं । डा. साहब की यह मान्यता सही है कि इस प्रकार के विवादों को साम्राज्यवादी लेखकों ने दुर्भाव से उत्पन्न किया और बढाया है । वैदिक सभ्यता और व्यवस्था में आर्य - शूद्र वैमनस्य का भाव नहीं था । इसकी पुष्टि में अनेक तर्क और प्रमाण दिए जा सकते हैं । शूद्र आर्य वर्णों के अन्तर्गत थे और वैदिक वर्ण व्यवस्था के अभिन्न अंग थे । वैदिक वर्ण व्यवस्था गुण - कर्म - योग्यता पर आधारित व्यवस्था थी, जन्म पर आधारित नहीं । किसी भी कुल का बालक या व्यक्ति इच्छा और योग्यतानुसार किसी वर्ण का चयन कर सकता था । एक बार एक वर्ण का चयन करने के बाद भी उसे यह स्वतन्त्रता थी कि फिर से अभीष्ट वर्ण की शिक्षा - दीक्षा प्राप्त करके वर्ण परिवर्तन करके उस वर्ण को प्राप्त कर सके । कर्मों के त्याग से ब्राह्मण शूद्रों में परिगणित हो जाते थे और योग्यता अर्जित करके शूद्र आदि वर्ण ब्राह्मण बन सकते थे । वर्ण निर्धारण जन्म से नहीं, अपितु वर्ण की शिक्षा - दीक्षा के आधार पर आचार्य करता था । वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता के कारण व्यक्ति बदलते रहते थे । व्यक्तियों के बदलने पर वर्ग नहीं बन सकता, अतः वर्ग वैमनस्य की गुंजाइश वैदिक वर्णव्यवस्था में है ही नहीं । वैमनस्य की परिकल्पना मिथ्या है । इसके अतिरिक्त, वेदों और वेदानुकूल मनुस्मृति आदि में शूद्रों के प्रति प्रेम, सद्भाव, समानता का वर्णन है । बौद्धकाल से कुछ शताब्दी पूर्व जन्मगत व्यवस्था जब प्रचलन में आई, तब आर्य - शूद्र वैमनस्य तथा पक्षपात की बातें समाज में पनप गईं । आज के लेखक उन्हीं को वैदिक व्यवस्था पर थोप देते हैं, जो भ्रान्तिपूर्ण है । वैदिक काल में जन्मना जाति का भाव समाज में उत्पन्न ही नहीं हुआ था, अतः जन्मना जातिवादी विचारों को वैदिक काल से मिलाकर नहीं देखना चाहिए ।
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