CONTRIBUTION OF FATAH SINGH TO Veda Study
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डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व एक - दिवसीय संगोष्ठी - २७ अप्रैल, २००८ (वेद संस्थान, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली - ११००२७) ''एकेश्वरवाद और ओंकार'' - डा. फतहसिंह की दृष्टि में - डा. अरुणा शुक्ला, प्राध्यापिका, संस्कृत विभाग, बी.एल.एम. गर्ल्स कालेज, नवाँशहर लेख - सार सन् १९८७ में दिल्ली विश्वविद्यालय में वैद्य रामगोपाल जी शास्त्री की स्मृति में आयोजित व्याख्यानमाला के अन्तर्गत डा. फतहसिंह ने ''वैदिक एकेश्वरवाद और ओंकार'' शीर्षक एक शोध लेख पढा था । बाद में यही लेख वेद - संस्थान, नई दिल्ली के प्रचार मन्त्री श्री योगेन्द्र वधवा जी के सत्प्रयास से पुस्तक रूप में वेद संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था । इस लेख में वेदों के एकेश्वरवाद का प्रतिपादन ओंकार के रूप में किया गया है । हमारी समस्त दार्शनिक और धार्मिक परंपरा में उसी ओम् को परम तत्त्व ब्रह्म का वाचक माना गया है । विविध देवताओं के चित्रण के मूल में एक ही परम सत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है कि इन्द्रादि देव वस्तुतः एक ही 'परं सत्' के विविध नाम हैं और इन नामों का 'नामधा' देव एक ही है - यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यो देवानां नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ।। - ऋग्वेद १०.८२.३ उसी एक देव का नाम ओम् है । उसी का वाचक प्रणव है । तैत्तिरीय आरण्यक ने भी ओम् के विभिन्न प्रयोगों को सूत्र रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है - १. ओमिति ब्रह्म । ओमितीदं सर्वम् । ओमिति एतदनुकृतिह स्म वा अप्यो श्रावयेति आश्रावयति । २. ओमिति सामानि गायन्ति । ३. ओं शोमिति शस्त्राणि शंसन्ति । ४. ओमिति अध्वर्यु: प्रतिहारं प्रतिगृणाति । ५. ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ६. ओमित्यग्निहोत्रमनु जानाति । ७. ओमिति ब्राह्मण: प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति । ब्रह्मैवोपाप्नोति । - (तै.आ. ७.८.१; जै.उ. १.८.१) ऋग्वेद ८.५८.२ में न केवल नाना रूपात्मक जगत के मूल में एक ही तत्त्व स्वीकार किया गया है, अपितु यह भी स्पष्ट रूप से माना गया है कि सूर्य आदि प्रतीकों द्वारा वर्णित अनेकता में अनुस्यूत एकता का प्रतिपादन ही वेदों का परम लक्ष्य है - एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध एक: सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः । एकैवोष: सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम् ।। एकेश्वरवाद के विषय में वेद स्पष्ट घोषणा करता है कि इन्द्र, मित्र आदि नामों से जिन अनेक देवों का उल्लेख मिलता है, उनमें एक ही परम सत् को विविध रूप से व्यक्त करने की वैदिक शैली है - इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: ।। - ऋ. १.१६४.४६ इसी बात को निम्नलिखित मन्त्र में पुनः दोहराया गया है कि सुपर्ण एक ही है जिसको विप्र अनेक रूपों में कल्पित करते हैं - सुपर्णं विप्रा: कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति - ऋ. १०.११४.५ । अतः जब 'ओमितीदं सर्वम्' कहा जाता है तो इसका आशय यह होता है कि ओंकार अपने इस रूप में सर्वात्मक है । इसी 'एकं बहूनाम्' को सहस्रशीर्षा, सहस्राक्ष और सहस्रपात् पुरुष के रूप में कल्पित किया गया । अपने 'पर' रूप में वही 'अपुरुष', 'अतिपुरुष' कहा जाता है । वेदान्त की भाषा में, यह 'अपुरुष' ही निरुपाधिक ब्रह्म कहलाता है । ऋग्वेद की प्रतीकवादी शैली में इसी को 'सिन्धु के पार प्लवनशील' 'अपुरुष दारु' कहा गया है - अदो यद् दारु प्लवते सिन्धो: पारे अपूरुषम् - ऋ. १०.१५५.३ । इसी 'अपुरुष' की अभिव्यक्ति अथवा वाक् मूल वेद है, अपर ओंकार या अपर ब्रह्म है । इसी ब्रह्म वेद को कभी - कभी ब्रह्मा का वीर्य भी कहा जाता है, जिसका उद्भरण साधक अपने हिरण्य कोश से करके 'इष्ट कर्म' सम्पन्न करता है - यस्मात् कोशात् उदभराम वेदं तस्मिन्नन्तरव दध्म एनम् । कृतमिष्टं ब्रह्मणो वीर्येण तेन मा देवास्तपसावतेह ।। - अथर्ववेद १९.७२.१ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ओ३म् वस्तुतः प्रणव ओ३म् का सामवेदीय रूप है । अतः कह सकते हैं कि ओ३म् के द्वारा सम्पूर्ण यज्ञ सामयुक्त हो जाता है - प्रणवेनैव साम्नो रूपमुगच्छत्यो३म् । ओ३मित्येतेनो हास्यैष सर्व एव समासा यज्ञो भवति - माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण १.४.१.१ प्र उपसर्गपूर्वक णु धातु से निष्पन्न 'प्रणव' शब्द किसका अभिधान है, यह विचारणीय है । योगसूत्रकार पतञ्जलि ने 'तस्य वाचक: प्रणव:' इस सूत्र में प्रणव को ईश्वर का वाचक माना है । परवर्ती साहित्य में जहां प्रणव शब्द प्रयुक्त मिलता है, वहां सर्वत्र प्रणव का अभिधेय 'ओम्' है । प्रणव से ओम् का ही संकेत गृह्य होता है जो स्वयं ब्रह्म या परमात्मा का अभिधान है । आश्वलायन संहिता के मानस सूक्त में ओंकार रूप प्रणव को ही पुरुषोत्तम तथा परमात्मा कहा गया है(१) । ओंकार रूप प्रणव ही एकाक्षर ब्रह्मा है । ओंकार ही प्रणव के नाम से सर्वत्र उल्लिखित है । गोपथ ब्राह्मण प्रणव के स्वरूप तथा महत्त्व पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है । यह बात उल्लेखनीय है कि गोपथ ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण की तरह ओम् को ही प्रणव के रूप में मानता है । किन्तु ऋक्, यजुष्, साम, सूत्र, ब्राह्मण तथा श्लोक की तरह प्रणव की एक अलग सत्ता भी मानी गई है जिसमें 'ओंकार' प्रणव रूप में होता है । गोपथ ब्राह्मण इस जिज्ञासा का समाधान करता है कि ओम ऋक् है, अथवा यजुष् है, अथवा साम है, अथवा सूत्र है, अथवा ब्राह्मण है, अथवा श्लोक है? गोपथ ब्राह्मण के अनुसार 'ओंकार' ऋक् में ऋक् है, यजुष् में यजुष् है, साम में साम है, सूत्र में सूत्र है, ब्राह्मण में ब्राह्मण है तथा श्लोक में श्लोक है । वह जिसके साथ उच्चरित होता है, वह वही होता है । इसी प्रसंग में यह कहा जा सकता है कि ओंकार प्रणव में प्रणव(२) है । गोपथ ब्राह्मण इसी ओंकार की आध्यात्मिक उपासना का भी उल्लेख करता है । यह ओंकार अध्यात्म, आत्म भैषज्य तथा आत्म कैवल्य रूप है ( ३) । कठोपनिषद में ओम् रूप प्रणव ही ब्रह्म है, उसी की प्राप्ति में वेदाध्ययन, तपस्या, ब्रह्मचर्य आदि सभी साधन हैं ( ४) । - - - - - - - -- - - -- - - -- -- - - -- - - -- - निर्देशः १. प्रयतः प्रणवो नित्यं परमं पुरुषोत्तमम् । ॐकारं परमात्मानं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।। - आश्वलायन संहिता १०.१७१.२२( संपादक - प्रो. व्रज बिहारी चौबे, प्रकाशक - कात्यायन वैदिक साहित्य प्रकाशन, होशियारपुर) २. तस्मादोंकार ऋच्यृग्भवति, यजुषि यजु:, साम्नि साम, सूत्रे सूत्रं, ब्राह्मणे ब्राह्मणं, श्लोके श्लोक:, प्रणवे प्रणव इति ब्राह्मणम् ।। - गोपथ ब्रा. १.१.२३ ३. अध्यात्ममात्मभैषज्यमात्मकैवल्यमोंकार: । आत्मानं सङ्गममात्रीं भूतार्थचिन्तां चिन्तयेत् । अतिक्रम्य वेदेभ्य: सर्वपरमध्यात्मकलं प्राप्नोतीत्यर्थ: । - गोपथ ब्रा. १.१.३० ४. सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।। - कठोपनिषद १.२.१५ डा. फतहसिंह - व्यक्तित्व और कृतित्व एक - दिवसीय संगोष्ठी - २७ अप्रैल, २००८ ई. (वेद संस्थान, नई दिल्ली - ११००२७) डा. फतहसिंह - कृत ''वैदिक दर्शन'' - एक दिशा व चिन्तन - डा. प्रतिभा शुक्ला, प्रवक्ता, संस्कृत विभाग, हिन्दू गर्ल्स कालेज, सोनीपत(हरियाणा) सारांश अपने ग्रन्थ ''वैदिक दर्शन'' में डा. फतहसिंह ने वेदों को समझने की आध्यात्मिक दृष्टि को स्वीकार किया है । उनका मानना है कि वेद ऋषियों की समाधि में प्राप्त अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हैं । ''वैदिक दर्शन'' में पिण्डाण्ड से ब्रह्माण्ड तक होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में सादृश्य व एकता को दर्शाया गया है । इस ग्रन्थ में पिण्डाण्ड, शक्ति व शक्तिमान्, ब्रह्माण्डीय मूल सिद्धान्त, वैदिक देवता, इदम् और अहम्, नामरूप जगत्, उत्पत्ति, व्यष्टि प्रक्रिया, दोहन प्रक्रिया, कल्प प्रक्रिया, ऋतु - प्रक्रिया आदि बिन्दुओं का विशद विवेचन है । प्रस्तुत शोधपत्र में इनकी संक्षिप्त चर्चा की गई है ।
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